शुक्रवार, 13 जुलाई 2018

अखंड आस (अतुकांत)

रुग्ण एस्बेस्टस तले
टिमटिमा रही है 
अखंड आस
दरकी दीवार के सहारे

संघर्ष 
फड़काता भुजाएँ
पीकर आँसू
फर्श के चटकते प्लास्टर का
बलवान हुआ जाता
उन हवाओं की गंध से
जिनमें होती है चीत्कार पास के जंगल की
जो खाया जा रहा "सभ्य लोगों" के द्वारा

रंग-बिरंगे झंडों ने
भड़काया बारूद बनने के लिए
थालों में सजा-सजाकर लाए गए हथियार
लेकिन
वह जानती थी बारूदी अस्तित्व का भविष्य
उसे पता था हथियारों का स्वभाव

उसने जलना स्वीकारा लेकिन
खाइयों से लड़ने के लिए
धारदार चीज भी चुनी
तो 
कलम नाम की

कर रही सब जतन
स्वयं को बचाए रखने की
पिघलती, टपकती रातों से
प्रतीक्षा में उस भोर की
सभी लघु प्रकाशपुंजों के संग
जिस में विलीन होकर
बन सके वह भी
अभिन्न अंग उजालों के आकाश का...

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