खिड़की पास चुपचाप खड़े मधुकर बाबू अपने पड़ोसी लड़के अरिजीत को दफ्तर के लिए निकलते हुए देख रहे थे। पिता की सेवाकाल में हुई मृत्यु के बाद अनुकम्पा के आधार पर उसे नौकरी मिल गयी थी। अपने रिटायरमेंट से मात्र छः महीने दूर थे मधुकर बाबू। उनके मन में नकारात्मक भावों ने फिर चीखना शुरू कर दिया - काश, मैं भी मर जाता! मेरे बेटे विवेक को भी ऐसे ही नौकरी मिल जाती! बच्चा दिन-रात मेहनत करता है लेकिन ये आज की गलाकाट प्रतियोगिता...ओह्ह! उसका ये दुखी चेहरा अब और देखा नहीं जाता।
मन मसोसते वे कमरे से बाहर निकले। बरामदे के निकट पहुँचने पर उन्हें विवेक और उसके दोस्त उत्पल की बातचीत सुनाई दी. उत्पल कह रहा था,
“अरिजीत के तो मजे हो गये। सरकारी नौकरी मिल गयी और हम हैं कि वहीं के वहीं घिस रहे हैं...”
उसकी बात सुनकर मधुकर बाबू के मन में उमड़-घुमड़ रहा विषाद और गहरा गया। उनके भारी कदम कुछ ही आगे बढ़ पाए थे कि विवेक का झल्लाया स्वर कानों में पड़ा,
“अबे तू आदमी है कि गिद्ध? बाप के मरने पर मिली नौकरी लेकर कौन बेटा मजा कर सकता है? चूल्हे में जाए ऐसी नौकरी...इससे तो मैं बेरोजगार ही ठीक हूँ”
मधुकर बाबू परदे की ओट से विवेक को देखते ही रह गये। उनकी आशाओं को नवजीवन मिल चुका था।(समाप्त)
ब्लॉग बुलेटिन की दिनांक 04/04/2019 की बुलेटिन, " चल यार धक्का मार , बंद है मोटर कार - ब्लॉग बुलेटिन “ , में आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
जवाब देंहटाएंआपका बहुत-बहुत आभार भाई
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