शनिवार, 1 अगस्त 2020

नयी शुरुआत (कहानी)

नये साल के अवसर पर ट्रांसजेंडर्स की भीड़ एक दुकान के सामने नाच-गाना या कहें तो धमाचौकड़ी करने में जुटी थी ताकि दुकानदार जल्दी से पैसे दे दे. सड़क के दूसरी और खड़े रितेश की आँखें उनकी पूरी भीड़ में केवल एक ही सदस्य पर टिकी थीं, "सुनयना" पर. रितेश के मन में फिर से दस साल पहले हुई वही घटना घूमने लगी जब सुनयना, "नयन" हुआ करती थी. अपने माँ-बाप का दूसरा "शारीरिक बेटा". हाँ, वो केवल शरीर से ही तो नर था! उसके अंदर मादाओं वाली भावनाएँ थी. चाल-ढाल भी बिल्कुल स्त्रियों सी.

उस दिन उसके पिता काफी गुस्से में थे.

"साला, मउगा, मेहरा...सोच-सोच के हम खुश होते थे कि दो-दो बांके मर्द हैं हमारे बेटे लेकिन ये तो..."

माँ हमेशा की तरह बीच-बचाव की कोशिश में थी,

"जाने दीजिए न! उसके चक्कर में क्यों पड़ते आप?"

"अरे चुप" पिता उस दिन कुछ सुनने के मूड में नहीं थे. नयन को एक और थप्पड़ लगाते हुए चीखे, 

"अरे बेटी ही होनी थी तो वही हो जाती! कौन सा हम बेटे के लिए जान दे रहे थे! लेकिन ये बीचों-बीच का आइटम नहीं चलेगा यहाँ"

भाई, माँ और आसपास के लोगों के जुटने से हंगामा थमा लेकिन हर कोई जानता था कि ये क्षणिक शांति थी. नयन लगातार रो रहा था. बारह साल का बच्चा अपनी भावनाएँ ठीक से खुद ही नहीं समझ पाता तो किसी और को बताने के लिए शब्द लाये भी तो कहाँ से?


रोज की तरह रात हुई और फिर अगले दिन सुबह मगर नयन किसी को नहीं मिला. माँ का रोते-रोते बुरा हाल था. पिता दुखी हैं या खुश कुछ समझना मुश्किल था. पुलिस-दरोगा का मामला शुरू हुआ और फिर एक दिन उन्हीं ट्रांसजेंडर्स की टोली के साथ कहीं शादी में ढोल बजाता नयन मिल गया. सबके बहुत समझाने पर भी वो घर लौटने को तैयार नहीं हुआ. उसके नये दोस्तों ने भी ऐलान कर दिया कि अब ये नयन नहीं बल्कि सुनयना है.

वो दिन था और आज का दिन। दस सालों में भी कुछ नहीं बदला। सुनयना, अपनी टोली के साथ जगह बदल-बदल के जाती रहती। कईबार तो अपने मोहल्ले में भी आना हो जाता जैसे कि आज हुआ.

सुनयना जब भी अपने मोहल्ले आती तो बचपन के दोस्त रितेश से मिलना नहीं भूलती.

आज जब वो शाम को रितेश से मिलकर नये साल की शुभकामनाएँ देने पहुँची तो रितेश बहुत उदास मिला. पूछने पर उसने बताया कि वह पढ़ने के लिए विदेश जाना चाहता है. इसके लिए उसे पाँच लाख रुपये चाहिए.

सुनयना सबकुछ ध्यान से सुनती रही फिर चली गयी. अगले दिन उसने पाँच लाख रुपये सीधे रितेश के हाथ में रख दिये। दो-दो हजार के नोटों की गड्डी थी.

"ये पैसे..."रितेश ने आश्चर्य से पूछा.

"अरे तुम्हें बताया तो था कि नाच-नाच के पाँच लाख जमा कर चुकी हूँ खर्चे से बचाते हुए.

सुनयना ने कहा और वहाँ से चली गयी.

पंद्रह जनवरी के दिन ही फ्लाइट का समय बताया था रितेश ने. सुनयना जाने से पहले रितेश से मिलने उसके घर पहुँची.

देखा कि वहाँ रितेश के घर में आगे जो दुकान खाली पड़ी थी, उसमें कोई किराना दुकान खुली थी और उसके उद्घाटन की तैयारी चल रही थी. कथा-पूजन के लिए पंडित भी बैठे थे. रितेश उनकी बगल में बैठा था.

सुनयना ने उसे देखा तो चौंक गयी.

"तुमने दुकान खोल ली रितेश?"

"हाँ लेकिन अपने लिए नहीं बल्कि तुम्हारे लिए"

सुनयना को कुछ समझ नहीं आया. रितेश ने उसका हाथ पकड़ के उसे पंडित जी के बगल में यजमान वाले आसन पर बिठा दिया और बोला,

"तुमसे विदेश जाने का बहाना कर के पैसे मैंने तुम्हारे लिए ही माँगे थे. वर्ना तुम कभी नहीं देती. समाज बदल रहा है. तुम भी बदलो. यहाँ मेरे घर से अपना काम शुरू करो. ये तुम्हारे ही पैसों से बनी है इसलिए ये मेरा कोई एहसान भी नहीं और इससे आने वाले पैसों से मुझे किराया भी दे देना"

"ल...लेकिन..." रितेश की भावना देखकर सुनयना का गला भर आया. रितेश ने उसका हाथ पकड़ लिया और बोला,

"नये साल में नयी शुरुआत, हैप्पी न्यू ईयर" (समाप्त)

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