"तो सरकार, कितने का बिल बना इस महीने?" आईने के सामने बैठी सपना अपने गीले बालों पर तौलिया फिराती शरारत भरे अंदाज में बोली।
"रात के साढे दस बज रहे हैं मैडम, बिल का हिसाब कल लेना" मच्छरदानी लगाने में मगन उसके पति सिद्धार्थ ने अलसाई आवाज में जवाब दिया।
"अच्छा, कल कितने बजे का मुहूर्त निकलवाया है इसके लिए?" सपना ने तौलिए को उसके सिर पर दे मारा।
"अरे-अरे, तू भी न बहुत शैतान होती जा रही है, इस महीने लगभग पंचानवे हजार के आसपास की आमदनी हुई लेकिन पापा को कुछ जरूरत थी सो उन्होंने रख लिए, चल अब सो जा" कहता सिद्धार्थ बिस्तर पर निढाल हो गया।
सुनते ही सपना का मन उचट सा गया। अपने ससुर महेन्द्र वर्मा की छवि उसकी नजरों में कोई विशेष अच्छी नहीं थी। उसने थोड़ी और बातें करनी चाही इस बारे में लेकिन सिद्धार्थ सो चुका था। वह भी बत्ती बुझा के चुपचाप आकर बगल में लेट गयी किन्तु नींद आँखों से गायब हो चुकी थी।
महेन्द्र बाबू दवा व्यवसायी थे। दुकान भी अच्छी चलती। हर माह के अंत में पूरे माह हुई बिक्री का हिसाब करते और प्राप्त आय के अनुसार कुछ रुपये बैंक में जमा करा बाकी घरेलू खर्चों के लिए अपनी पत्नी शोभा को दे देते। पिछले साल एकलौते बेटे सिद्धार्थ की शादी कर दी सो तब से पैसे उसके ही हाथ में देते थे जिससे वह घर चलाने के लिए कमाई का प्रबंधन करना सीख सके।
सपना अपनी शादी के दिन से ही महेन्द्र बाबू को लेकर थोड़ा असहज हो गई थी जब उन्होंने मंडप में कुर्सियों की संख्या कम बताकर उसके पिता से सारी बारात के सामने काफी कड़ाई दिखाई। उसके बाद वह उनसे कभी घुल नहीं सकी। ससुराल आने के बाद भी उनकी शासनात्मक प्रवृत्ति, हर चीज में दखल देना उसे कतई न भाता। सास का व्यवहार जितना सरल और दोस्ताना महसूस होता, ससुर का उतना ही कठोर। हालाँकि "बेटी-बेटी" कह के ही बात करते लेकिन बहुत सी बातें ऐसी जान पड़तीं उसे जो कि मायके और ससुराल में अंतर पैदा करती दीखतीं।
उसका करवटें बदलना जारी था। दो महीने से चाह रही कि एसी लगवा लूँ, अब ये पैसे तक अपने पास रखने लगेंगे बिना कारण बताए तो चल लिया घर। रीना की भी सगाई है कुछ दिनों में, क्या सोचेगी कि दीदी साधारण सा तोहफा लेकर आई है। सिद्धार्थ तो कुछ कहेगा नहीं, उसे तो सब बात में बस पापा-पापा। सास के सामने खुद ही लिहाज में पड़ जाती। बचपन से माँ-बाप ने सिखाया कि सास-ससुर भी माता-पिता समान होते। हरबार विदा करते-करते यही दुहराते हैं, बेटी औरों की तरह तू भी बहु के रिश्ते को घर तोड़ने का प्रतीक मत बनाना, महेन्द्र जी बहुत अच्छे आदमी हैं, कुछ कह मत देना अपने जिद्दी स्वभाव के वश में आकर उनसे। हुँह, अच्छे आदमी! पत्थर की मूरत हैं मूरत। न कभी हँसना, न मजाक करना, जाने किस मशीनी प्रकृति के इंसान! दहेज नहीं लिया तो कौन सा उपकार कर डाला? उनका बेटा एमए पास है तो मैं भी हूँ और आगे तो हमें ज्यादा पैसों की जरूरत पड़ेगी जो नया सदस्य घर में आनेवाला उसके लिए। दो हफ्ते पहले ही पता चली ये बात उसके बावजूद कोई फर्क नहीं पड़ता मानों स्वभाव में उनके।
निंदिया रानी आई भी तो इन्हीं सोच-विचारों से गुत्थम-गुत्था करती आधे मन से ही साथ दे सकी। अगले दिन सुबह से उन्हीं ख्यालों ने फिर घेर लिया। सास मंदिर के लिए निकल गयी और सिद्धार्थ नाश्ता कर दुकान चला गया। घर के पानी निकासी पाइप में कुछ समस्या आ रही थी कुछ दिनों से सो उसे ठीक करने के लिए मजदूरों को बुलवाया गया था अतः महेन्द्र बाबू रुक गये। सपना ने फैसला कर लिया था कि आज वह चुप नहीं रहेगी, अच्छे से ही सही लेकिन अपनी बात कहेगी जरूर। इसमें कोई बुराई नहीं है। उसने रसोई में रखी खाने की चीजों को ढँककर एक तरफ रखा और ससुर जी के कमरे की ओर चल पड़ी। वहाँ दरवाजे तक पहुँची ही थी कि उनको फोन पर किसी से बातें करते सुन ठिठक गयी। लाउडस्पीकर सेट था, सो दूसरी तरफ से अपने पिता की आवाज आती जानकर मन खिल उठा। महेन्द्र जी अपनी चिरपरिचित रौबदार शैली में उनसे कह रहे थे,
"देखिए समधी जी रीना की सगाई होटल आदित्य पैलेस में ही होगी और खर्चा हम देंगे, कल ही सिद्धार्थ को भी कह दिया कि एक महीने मैनेज कर ले, इसबार की सारी कमाई हमारी रीना बिटिया के नाम और आपने मना किया तो हम यही समझेंगे कि आपसब ने पराया बना दिया, जब लड़के वाले थे तब थे, आज तो आपके साथ-साथ हम भी लड़कीवाले ही...इसी बहाने एक बेटी का बाप होने का अरमान थोड़ा हमारा भी पूरा हो जाएगा"
सपना का मुँह खुला का खुला रह गया। हो गयी न आखिर किसी को पहचानने में भूल! नयी पीढ़ियाँ कच्चे अनुभवों के आधारपर धारणाएँ बनाकर अपना ही बुरा करती हैं। भगवान का लाख-लाख शुक्रिया जिसने बहुत बड़ी शर्मिंदगी से बचा लिया। बहु को दरवाजे पर खड़ा देख महेन्द्र जी ने फोन रख दिया,
"हाँ कहो बेटा"
"न...नहीं पापा, प...पूछने आई थी कि आलू के पराँठे बना दूँ अभी आपके लिए"
"अरे नहीं-नहीं, मजदूर माथे पर आ धमके हैं, देखूँ उनको पहले किधर से क्या काम शुरू करेंगे, तुम नाश्ता कर लो और धीरे-धीरे भागदौड़ थोडा कम करो"
"जी"
अपनेआप पर अंदर ही अंदर लजाती वापस रसोई को चल दी। उसके मन में स्थापित पत्थर की मूरत की अब तेजी से प्राण-प्रतिष्ठा हो रही थी (समाप्त)
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