"शिक्षक ही समाज का निर्माता होता है। हम क्या सीखेंगे, कैसे सीखेंगे इसका निर्णय लेने की जिम्मेदारी उसी की है। हमारा देश..." जिलाधिकारी महोदय का शिक्षक दिवस के मौकेपर आयोजित सम्मान समारोह में भाषण चल रहा था। पुरस्कृत किए जाने के लिए चयनित शिक्षिका सुधा सोनी अपने सहकर्मियों के साथ श्रोताओं की अगली कतार में बैठी थीं। रिटायरमेंट से मात्र तीन महीने पहले मिला सम्मान पूरे सेवाकाल का सुखद समापन कराता प्रतीत हो रहा था लेकिन क्या सचमुच सेवानिवृत्ति ही कर्तव्यों को विराम दे देगी? नयी पीढ़ियों को तराशते रहने का जो संकल्प लिया था, क्या वह पूर्णता को प्राप्त कर गया? विचारों का रथ मन को धीरे-धीरे स्मृतियों की ओर ले जाने लगा...
कोई चालीस-बयालीस साल पहले की बात होगी। बाबूजी उसदिन बहुत नाराज हो रहे थे,
"ये सब क्या है सुधा? पाँचवी-छठी की बात जबतक थी, हमने खुद कुछ नहीं कहा। ये तुम्हारा नौंवी क्लास का रिजल्ट है और नंबर इतने खराब! बचपना कब जाएगा तुम्हारा? अगले साल बोर्ड की परीक्षा कैसे पार लगेगी, सोचती क्यों नहीं कभी?"
"हम तो पहले ही कहे थे कि ट्यूशन रखिए इसकी। गणित और विज्ञान में कहती है दिक्कत...." अम्मा की बात अधूरी रह गयी।
"अरे ट्यूशन रखें चाहे हॉस्टल भेज दें, पढ़ने बैठे तब तो?" बाबूजी और झल्ला उठे "यहाँ तो एक टाँग पर उछलते रहने से फुर्सत नहीं कित-कित में"
चुपचाप सिर झुकाए सब सुनती रही। पास खड़ी छोटी, दिदिया को डाँट पड़ती देख मुँह दबाए हँस रही थी। पढ़ाई में मन लगे तब न! किताबें देखते नींद आने लगती। पिछला पढ़ा हुआ अगला रटते ही जैसे उड़ जाता दिमाग से। स्कूल में मार पड़ती सो अलग। साथियों को पढ़ते देख चिढ़ से भर जाता मन, हुँह, फिर कुछ नंबर लाकर अपने घर में कूदेंगे और घरवाले यहाँ अम्मा-बाबूजी के सामने, उसके बाद फिर से चार बातें सुनो।
अंततः कोई और उपाय न देख आज बाबूजी ट्यूशन कराने को तैयार हो गये,
"देखता हूँ ट्यूटर कोई मिले बढ़िया तो। पासवाले ब्लॉक के हाईस्कूल में एक नया मैथ्स का टीचर ट्रांसफर होकर आया है, सुना कल। बात करता हूँ उसी से"
दो ही दिनों बाद अचानक शाम को अम्मा का आदेश सुनने को मिल गया,
"आज मत भागना सविता-कविता आदि के यहाँ, मास्टर जी के घर जाना है ट्यूशन के लिए"
मन खिसियाया लेकिन क्या करती? पहलीबार था सो बाबूजी खुद पहुँचाने आये। वहाँ बाकी लड़कियों के साथ बैठी लेकिन आदत से मजबूर, सो उनसे भी वही गप्पें, हू-हू हाहा शुरू कि तभी एक गंभीर आवाज ने सबको अनुशासित कर दिया,
"आज इतना शोर कैसे भई?"
एकटक से देखती रह गयी। लंबी-तगड़ी कद-काठी और प्रभावशाली मुखमंडल। उम्र कोई पचास के आसपास। कदम-कदम से सलीका झलक रहा था। आते ही ब्लैकबोर्ड साफ कराया और पढ़ाने लगे। जैसे कोई जादू सा था उनकी शैली में। लग ही नहीं रहा था कि अपना दुश्मन विषय पढ़ रही है। इतना आसान है मैथ्स! उस पहली क्लास ने ही मानों ललक पैदा कर दी गणित की। अगले दिन पैर अपनेआप ही क्लास के लिए चल पड़े।
वह टीचर भले गणित के थे लेकिन विज्ञान और अंग्रेजी भी उसी प्रवीणता के साथ पढ़ाते थे। इसका पता उनके इन विषयों के बैच ज्वाइन करते ही लग गया। जो पढ़ाई कलतक सजा थी, अब मजा बनने लगी। दसवीं की प्रथम सावधिक परीक्षा परिणामों ने पुष्टि भी कर दी। जिंदगी में पहलीबार "प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण" वाक्य का मुँह देखने को मिला था। बाबूजी मिठाई लेकर मास्टर जी के पास गये। उन्होंने बहुत खुशी से खाई मिठाइयाँ। अपने विद्यार्थियों को अपना अंश जो मानते थे। क्लास में खुद कई बार ये बात दुहरायी थी।
धीरे-धीरे उनसे खुलती गयी। सभी छात्र-छात्राओं में अपना दर्जा थोड़ा खास बनता लगे तो ऐसा होना भी स्वाभाविक था। कईबार अनुभव की ये बात। यहाँ तक कि अब ट्यूशन फी भी आगे लेने से मना कर दिया, बोले तुमको जो देना था वह तुम दे चुकी हो। कोई भी सवाल, कोई भी संशय पढ़ाई से संबंधित छुट्टी के दिनों में भी जाकर हल करवा लेती। एकदिन क्लास के दौरान प्यास लगी तो उन्होंने घरेलू नौकरानी से वहीं पानी मँगवाने की बजाए अंदर जाकर पी लेने को बोल दिया। झिझक दूर हो ही चुकी थी सो सीधे चली गयी। उनकी बीवी से भेंट हुई। अवस्था अम्मा के बराबर ही होगी।
"सुधा हो न?" देखते ही पूछा
"हाँ मैम, आपको पता मेरा नाम" मुस्कुरा के पूछ बैठी।
"सब पता है, बैठ यहाँ पहले"
अपने पास बिठा के नमकीन ले आयीं।
"मैम क्लास चल रही..." थोड़ा हिचकते हुए कहा लेकिन सुनवाई नहीं होनी थी।
"बैठ न चुपचाप, कल दुबारा लिखा देंगे मास्टर जी" कहती हुई खुद ही खिलाने लगीं। मना करने के लिए शब्दों ने भी आने से इनकार कर दिया।
दसवीं की परीक्षा आयी और बीत गयी। रिजल्ट के लिए मन पूरी तरह निश्चिंत था। "प्रथम श्रेणी" की आदत जो लग चुकी थी और इसबार का रिजल्ट भी उसका अपवाद नहीं बना। सर खुद उसदिन अखबार लेकर सुबह-सुबह घरपर आ गये थे चहकते हुए। जाते समय कह गये कि तुम्हारी गुरुमाता ने बुलाया है दोपहर को, आ जाना। वहाँ पहुँची तो पाया वे दरवाजेपर ही खड़ी थीं जैसे कोई माँ अपनी बेटी का इंतजार कर रही हो। देखते ही गले से चिपका लिया और रोने लगीं। कुछ समझ नहीं आया,
"क्या हुआ मैम?" हैरत से उनके गले लगे-लगे ही पूछा।
"कुछ नहीं रे, ऐसे ही अच्छे से पढ़ाई कर, अब चल खाना खा ले" कहते हुए कमरे में ले आयीं। बहुत स्वादिष्ट खीर-पूरी बनाई थी उन्होंने। स्वाद अबतक जीभपर ताजा।
आगे की पढ़ाई के लिए सर से मिली हिम्मत ही थी कि विज्ञान और गणित लेकर ही इंटर किया एवं गणित (प्रतिष्ठा) से ही स्नातक तथा बीएड भी। इस पूरे समय में भी जो प्वाइंट्स कॉलेज में प्रोफेसरों के बताए क्लीयर नहीं हो पाते, सीधे आकर उनसे पूछ लेती। आखिर विज्ञान और गणित दोनों से स्नातकोत्तर वह भी अपने जमाने के टॉपर थे वे। घर में सजी डिग्रियों और चित्रों ने ही ये बातें बताईं। उनसे बेहतर कौन होता?
उसदिन मन बहुत भावुक हो गया था और लौटकर रोयी भी जब कुछ पूछने उनके यहाँ गयी, दोनों पति-पत्नी उस समय घरपर नहीं थे। नौकरानी साफ-सफाई में जुटी थी। अपनापन बन ही चुका था सो अंदर घर में घुस के इधर-उधर टहलने लगी कि तभी एक तस्वीर दिखी आधी खुली दराज में। गोल्डेन फ्रेम चढ़े होने के कारण ध्यान गया था। जरूर किसी खास की होगी, सोचकर उठाया तो किसी सतरह-अठारह साल की लड़की की फोटो थी।
"ये कौन है जानती हो?" नौकरानी से पूछा।
"मालिक की एकलौती बेटी की फोटू है दीदी, बेचारी किसी एक्सीडेंट में चल बसी। दसवीं की परीक्षा का अपना रिजल्ट भी नहीं देख पाई जिसमें फर्स्ट डिवीजन से पास किया था"
सुनते सन्न रह गयी। चित्र को वापस गौर से देखा। काफी हदतक उसी सुधा से मिलती-जुलती जो दसवीं क्लास की ट्यूशन लेने आती थी कभी अर्थात ये लोग अपनी दिवंगत बेटी को ढूँढने लगे मुझमें...! उस घर से मिलनेवाली ममता का मूल समझ आ चुका था। तभी से सर और मैम में बाबूजी-अम्मा नजर आने लगे। अम्मा को ये बताया तो उनकी भी आँखें भर आयीं। अब सर पराए नहीं रह गये थे। दो-दो माता-पिताओं से मिलनेवाला स्नेह जीवन को बहुत धनवान बना चुका था। हमेशा शांतचित्त दिखनेवाले सर तब आँसुओं में डूब गये थे जब मंडप में बाबूजी ने उनको कहा कि मास्टर जी, सुधा के कन्यादान के समय आप भी मेरे साथ रहिएगा। कन्यादान करते हुए भी वे बार-बार भावनाओं में बहते रहे। बाबूजी की सुनारी दुकान के मंदी में चलनेपर उस जमाने में उन्होंने बीस हजार रुपयों की मदद दी थी जो हमारे बार-बार जोर देनेपर भी कभी वापस नहीं लिए।
अंतिम क्षणों में बिस्तर पर से भी उनके मुख से यही बोल निकलते थे, शिक्षक एकबार बन गये तो बन गये, कोई रिटायरमेंट आपको फिर से आम आदमी नहीं बना सकता, आपकी जिम्मेदारी आपके जीवन के साथ ही समाप्त होगी, हम समाज के प्रति जवाबदेह हैं।
उनका जाना एक ऐसा निर्वात ला गया अंतस में जो इस जन्म में तो हटना असंभव है। एक दिन वे कोई फॉर्म भर रहे थे जिससे उनका नाम जाना। अनंत प्रसाद, सचमुच अनंत हैं वह। गणित की शिक्षिका होकर हर दिन वर्ग में उनको ही जीती, फैलाती रही। उनसे भर के छलकते हुए पूरा समय बिता दिया। उनकी मानसपुत्री होने का सौभाग्य बार-बार गर्वित करता है।
"मैडम, आपका नाम पुकारा जा चुका है" साथी कमलेश प्रसाद जी की फुसफुसाहट ने अचानक से तंद्रा तोड़ी।
"हम्म" जल्दी-जल्दी आँखों की नमी को चश्मे के नीचे से हटाते हुए मंच की ओर चल दीं। पुरस्कार लेतीं सुधा देवी को ताली बजा रहे श्रोताओं की भीड़ के हर चेहरे में अपने मास्टर जी की ही छवि दिखाई दे रही थी। (समाप्त)
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