सोमवार, 23 जुलाई 2018

लोकतांत्रिक सपना (लघुकथा)

सरकारी नलकूप तीन दिनों से खराब था। आज भी पानी लाने केंद्रीय विद्यालय के प्रांगण में लगे चापाकल पर निर्भर रहना पड़ेगा सोचकर बिस्तर से उठने का मन ही नहीं कर रहा था कि तभी दरवाजे पर दस्तक हुई। खोला तो विधायक जी सामने खड़े थे! मैंने हाथ जोड़ दिए। अंदर आने को कहा। उनके चेहरे पर सौम्य मुस्कान खिल उठी। 

"बंधु, कष्ट न करें, पता चला कि आपके इलाके का नलकूप तीन दिनों से खराब है" 

"हँ...हाँ विधायक जी, आप से संपर्क करने की कोशिश हमने की थी लेकिन..." 

"हाँ-हाँ, समझ सकता हूँ, मैं विधानसभा के सत्र में भाग लेने गया हुआ था इसलिए आप लोगों को तकलीफ हुई, क्षमा करें, आज ही आपकी समस्या का निवारण हो जाएगा" 

"अरे सर लेकिन आप बिना खाए-पिए ऐसे ही चले जाएँगे तो अच्छा नहीं लगेगा न" 

"अरे भाईसाहब तकलीफ बिल्कुल भी न करें, मैं आपका सेवक हूँ, जिस प्रकार वोट माँगने आपके दरवाजे पर आया था उसी प्रकार आप की समस्याएँ सुनने के लिए भी हमेशा आऊँगा, यह मेरा कर्तव्य है, अच्छा चलता हूँ" 

उनके जाते ही आज नलकूप ठीक हो जाएगा यह शुभ समाचार बीवी को सुनाने मैं अंदर भागा कि तभी किसी ने जोर से झिंझोड़ दिया,

"पापा-पापा उठिए, मम्मी कह रही है आज एक बाल्टी पानी और लगेगा, चावल भी बनाने, दो दिनों से चावल नहीं बन रहा पानी न रहने के कारण सो..."

मैं हकबकाया इधर-उधर देखने लगा। मैं अपने बिस्तर पर! तो मैं सपना देख रहा था! विधायक जी के दरवाजे से दो दिनों से खाली हाथ लौटते-लौटते आज तीसरे दिन के भी खाली ही निकलने की पूरी उम्मीद को भाँपते हुए मैंने दोनों हाथों में खाली बाल्टियाँ ले ली। चुनाव के समय उनके द्वारा बँटवाई गई बुकलेट टेबल पर पड़ी मुँह चिढ़ा रही थी,

"आपकी सेवा में चौबीसों घंटे तत्पर, आपके अपने नेता"

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