सोमवार, 23 जुलाई 2018

बँटने का समय (लघुकथा)

पत्नी ने घर की नर्सरी से अपनी पसंद की एक बड़ी सी मछली निकाल के बर्तन में रख ली। छटपटाती मछली निरीह भाव से मानों अपने छोटे साथियों को ही तैरते हुए निहार रही थी। माँ की गतिविधियाँ देख राजेश का सात वर्षीय बेटा किलक उठा,

"पापा देखो, यह मछली कितनी बड़ीऽऽऽ हो गयी न!"

पिता, पति, पुत्र, सरकारी कर्मचारी, जिम्मेदार सामाजिक व्यक्ति आदि की अपनी भूमिकाओं से न्याय कर सकने के लिए क्षण-क्षण जूझने वाले राजेश के मुँह से ठंडी आह के साथ बस इतना ही निकल पाया,

"हाँ बेटा, अब इसके भी टुकड़ों में बँटने का समय आ गया है" 

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