सोमवार, 23 जुलाई 2018

ठंडी-बासी रोटियाँ (लघुकथा)

उसे बहुत खीज होती थी। माँ रात को ही सुबह के नाश्ते की भी रोटियाँ बनाकर रख देती। वही ठंडी-बासी रोटी खाकर दफ्तर जाना पड़ता लेकिन माँ की वृद्धावस्था को देखते हुए कुछ कहते नहीं बनता। अब तबादले के बाद नये शहर में आना हुआ। 

सही डेरे की व्यवस्था करने तक माँ-बाबूजी को घर पर ही छोड़ना पड़ा। यहाँ एक उदार सहकर्मी के घर अस्थायी रूप से रहते हुए सुबह-सुबह गरमा-गरम पराँठे, कचौरियाँ मिलने लगीं लेकिन मन भारी बेचैन रहने लगा।
जल्दी-जल्दी एक फ्लैट खोजा और माँ-बाबूजी को खबर दी। रात को ही उनका फोन आया कि गाड़ी पर बैठ गये हैं, कल दोपहर तक पहुँच जाएँगे। अब वह बहुत खुश है कि परसों से फिर ठंडी-बासी रोटियाँ मिलने लगेंगी।

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