स्टेशन पर भीड़ कुछ ज्यादा थी लेकिन साकेत ने बीच से जगह बना के बुआ और उनके परिवार को गाड़ी में बिठा ही दिया। सामानों को बारी-बारी चढ़ाने में थकान तो हो गयी किन्तु अतिथि सत्कार एवं संबंधों के प्रति भावनाओं के आगे उसका कोई मोल न था। पहियों के सरकते-सरकते फूफा ने सौ-सौ के कुछ नोट जबरदस्ती पकड़ा दिए। आँखों से ओझल होनेतक हाथ विदाई में हिलाता रहा। बुआ की बड़ी बेटी आखिर बोल पड़ी,
"ये साकेत न पूरे घर में सबसे बड़ा मेहमानदार है सच्ची, चौबीसों घंटे लगा रहता है हमारे आनेपर"
मँझली ने तुरंत मुँह ऐंठा,
"हाँ-हाँ क्योंकि घर में सबसे बड़ा निकम्मा भी वही है, कुछ काम हो तो करे न हम में लटकने के सिवा!
गूँजते बेशर्म ठहाके साकेत की भावना को "इनाम" दे रहे थे
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें