सोमवार, 23 जुलाई 2018

पिकनिक (लघुकथा)

"जाड़ा आया पिकनिक होगी, जाड़ा आया पिकनिक होगी" नौ साल का टिंकू गाते हुए गोल-गोल घूम रहा था। पास के पार्क में किसी स्कूल के कुछ बच्चे दिन में आए थे, उन्हीं की बातें सुन उस समय से रटने का सुर चढ़ाए था। कमरे की खिड़की के टूटे हिस्से को बोरी से बंद करने में जुटे पिता टुन्ना को हँसी आ गयी,

"हाँ रे, खूब पिकनिक करना अप्पन बाबूजी के रिक्शेपर हाहा"

"हाँ बाबू, अबकी रिकसे पर ही चलेंगे चिड़ियाखाना, लिट्टी बनाएँगे, काफी पिएँगे" कहता टिंकू अपनी माँ रमिया से लिपट मचलने लगा।

अबतक सब सिर झुकाए सुन रही माँ रमिया रोटी बनाते-बनाते बुरी तरह झल्ला ही उठी,

"हँ-हँ खूब मजा करिहे एही गुदड़ी के दम पर सपना में काफी, सूप पी-पी के, पिछलाबार तोहर दिदिया न गई थी जाड़ा में, अबकी तूहूँ चल जइहे"

रोने लगा था टिंकू और अट्टहास कर रही थी गरीबी छत के एस्बेस्टस की दरारों से आती सर्द हवा को ताल दे-दे के...

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