शनिवार, 14 जुलाई 2018

निरंतर कर्म (बोधकथा)

एक राजा अपने राज्य की सीमाओं को सुरक्षित एवं प्रजा में चहुँओर सुख-शांति व्याप्त देख तनिक निश्चिंत होकर प्रमाद में डूबने लगा। रात्रिकालीन औचक निरीक्षण भी अब नाममात्र का होता था। उसने नगरपालों की बैठकें बुलानी भी बंद कर दीं। 

उसके इस व्यवहार से देश में अव्यवस्था फैलने लगी। एक दिन अर्द्धरात्रि को राजा की नींद खुली तो उसने अपने दो निजी सेवकों को कक्ष के बाहर कुछ मंत्रणा करते पाया। वे पड़ोसी शत्रु राज्य के गुप्तचरों से मिले किसी प्रस्ताव पर विचार कर रहे थे। राजा का मन विषाद से भर उठा कि जिस जनता को मैंने अपने रक्त से सींचकर रखा वही आज मेरे विरुद्ध जाने की मंशा पाल रही! उसका हृदय राजकाज से विरक्त होने लगा। उसी क्षण वह
अपने कुलगुरु की कुटिया की ओर निकल पड़ा। वहाँ पहुँचकर भारी मन से सारी बातें उनको बताई। 

गुरु मुस्कुरा उठे और उसके शीशपर हाथ रखकर कहा कि वत्स, इस प्रकाशमान दीप को देखो, इसके तेज से यहाँ फैला समस्त अंधकार सिकुड़ के इसकी शरण में गिरा त्राहिमाम कर रहा है किन्तु समाप्त नहीं हुआ, जिस क्षण इसकी ज्योति थोड़ी भी मद्धिम होगी उसी क्षण से तम का आवरण पुनः पसरने लगेगा अतः हमें भी अपने कर्मरूपी दीपक की लौ कभी मंद नहीं पड़ने देनी चाहिए अन्यथा हमारी प्रतिकूल परिस्थितियाँ इसी कालिमा की भाँति अपनेआप सबल हो जाएँगी। जीवन को अपने अनुकूल बनाए रखने के लिए निरंतर कर्म करते रहना पड़ता है। 

राजा की आँखें श्रद्धायुक्त अश्रुओं से भर गईं, उसे अपनी भूल का भान हो चुका था।

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