शुक्रवार, 13 जुलाई 2018

दर्पण तुम मेरा बनो (दोहे)

गेंदा हुआ गुलाब सा, निखरा लगे स्वरूप।
अगहन को झुठला रही, प्रिया गुनगुनी धूप॥ (1)

ये गुड़हल क्यों दिख रहा, आज अधिक ही लाल।
लाजवंत से शीत ने, पूछ लिया क्या हाल॥ (2)

तारे जल्दी सो गये, जैसे आयी रात।
चाँद ऊबता सोच कर, किससे अब हो बात॥ (3)

आप अगर स्वीकार लें, बाती का पदभार।
दीया बनने के लिए, मैं सहर्ष तैयार॥ (4)

मान गया मेरा हृदय, जब पत्थर की सीख।
दुख अपने अस्तित्व की, लगा माँगने भीख॥ (5)

कहे अँगूठा, उँगलियों! आ जाओ सब यार।
गले लगायें लेखनी, शिक्षित हो परिवार॥ (6)

कौन भक्त किसका यहाँ, किसको क्या परवाह।
मेरे देव सशक्त सो सबको मुझसे डाह॥ (7)

इक गठरी में बाँध कर, अपनी-अपनी पीर।
चलो फेंक आयें कहीं, मन हो रहा अधीर॥ (8)

बार-बार मुझसे कहे, गहराती ये रात।
सो जा साथी, चाँद से अब कल करना बात॥ (9)

मैं अब तक "मैं" हूँ प्रिये, आप अभी तक "आप"।
खोट भावना में कहीं, या कोई अभिशाप॥ (10)

कभी हठी शासक कभी आज्ञाकारी शिष्य।
वर्तमान की गोद में, लीला रचे भविष्य॥ (11)

इस समस्त ब्रह्मांड में, कहीं न ऐसी ठौर।
मातु-पिता की छाँव में, संतानें सिरमौर॥ (12)

अरे भई! अब क्यों भला स्वयं सँवारूँ केश।
अम्मा-बाबा आ गये, मैं फिर बना विशेष॥ (13)

जीवन भर की संपदा, बचपन की वह आस।
माता कह दे तो पिता, ले आएँ आकाश॥ (14)

माँ से जब कहला दिया, तब चिन्ता निर्मूल।
उगवा आएँगे पिता, चंदा पर भी फूल॥ (15)

दर्पण तुम मेरा बनो, देखूँ, करूँ सिंगार।
इकलौता ये स्वप्न भी, हुआ नहीं साकार॥ (16)

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