शुक्रवार, 13 जुलाई 2018

दो मुक्तक

(1)
नयनों तक रुकती कहाँ! छवि तेरी चितचोर
चल देती गजगामिनी, सदा हृदय की ओर
मधुर-मधुर पदचाप सुन, जगने लगते स्वप्न
मानों अंबर में खिली, आशामय इक भोर

(2)
वहाँ मत ढूँढना मुझको, जहाँ पर छोड़ आये थे
वो मूरत जुड़ चुकी है अब, जिसे तुम तोड़ आये थे
नयी कुछ खुशबुओं के संग साँसें फिर लगीं चलने
वे रस्ते खो गये जिनमें, तुम्हारे मोड़ आये थे

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