शनिवार, 14 जुलाई 2018

जय-जय राधेश्याम की


॥ दोहा ॥
व्याप्त रहो मुझमें सदा, बंसीधर, घनश्याम
मेरे कर्मों से तुम्हीं, झलको आठों याम

॥ हरिगीतिका ॥
तुम सत्य हो, सामर्थ्य हो, जग के रचयिता, प्राण हो
अँधियार में सम सूर्य जन-जन को दिलाते त्राण हो
बन चेतना मन में विचरते, भाव बनते काव्य में
इतिहास में रहते सुवासित, प्रकटते संभाव्य में

मुरली मधुर मनभावनी है, पावनी है, नेह है
सुध-बुध भुला सम्मोहिता सी नृत्य करती देह है
राधा सहित ब्रज में विराजित आज भी है पुण्यता
अनुभूतियों को तार देती दिव्य, निर्मल शून्यता

गंगा प्रवाहित प्रार्थना में, प्राप्त होती क्षीरता
मन चंद्र बन खिलता, पसरती चंद्रिका बन धीरता
स्वीकारते मुझको रहो हे ईश, ये ही कामना
गिरने लगूँ जब भी कभी तो दौड़ के तुम थामना

॥ दोहा ॥
जय-जय राधेश्याम की, महिमा अमित, अनूप
अपलक नयन निहारते, सुखद, सलोना रूप


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