सोमवार, 23 जुलाई 2018

पारस्परिक ममता (लघुकथा)

"अचार मत देना डार्लिंग, मन नहीं"

"वो तो कल ही खत्म हो गया, मैं आज लानेवाली थी लेकिन जल्दी में भूल गयी"

"न-न रहने दो, मत लाना"

"क्यों? बिना अचार के तो खाना निगला नहीं जाता तुमसे"

"हाँ लेकिन अब मम्मी-पापा भी यहीं रहने आ गये न!"

"आँय! तो इससे अचार का क्या लेना-देना?"

"लेना-देना ये कि मुझे खाते देख मम्मी यह परखने के लिए कि मैं कोई खराब गुणवत्ता वाली चीज तो नहीं खा रहा, खुद भी लेने लगेगी और ये बाजारवाला अचार बुजुर्गों के स्वास्थ्य के लिए अच्छा नहीं होता"

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