(1) संतोष का फल
नदी अहंकारी थी। जहाँ भी मान-मनुहार में कमी होती देखती, झट से रास्ता बदल लेती। पीछे रह जाता एक दारुण हाहाकार। एक दिन मैंने देखा कि उन्हीं हाहाकारों के बीच कुछ किलकारियाँ उन्मुक्त भाव से विचर रहीं थी। आश्चर्य हुआ तो नदी से इस बारे में पूछा। झेंपती नदी आगे बहने से पहले इतना ही कह पायी
"वे मुझसे पानी नहीं लेतीं, उनकी प्यास छोटी है सो काम तालाब से ही चल जाता"
(2) खून का स्वाद
रमाकांत बाबू उदास मन से बरामदे में बैठे थे। अंदर अंदर लज्जा का भी अनुभव हो रहा था। भतीजे अविनाश के द्वारा बार-बार पैसे माँगे जाने को लेकर घर में होने वाले झगड़े तो आम थे ही, कल पत्नी ने सीधे-सीधे उससे कह भी दिया। भले ही शब्द संयत थे लेकिन फिर भी कहा तो! अविनाश के गलत रास्ते पर चल पड़ने की शिकायत है सबको लेकिन अभी वह बच्चा है। एक न एक दिन जरुर समझेगा। ऐसा कैसे कि मैं पैसे दे-देकर उसके मुँह खून का स्वाद लगा रहा हूँ? इसी सोच विचार में डूबे वे पानी पीने के लिए उठे ही थे कि एक तेज धमाका हुआ और जलता कोयले का टुकड़ा उन्हें अपने सीने में धँसता लगा। बेहोश होने से पहले बाहर भागती बाइक पर बैठे दो नकाबपोशों में से एक को उन्होंने पहचान लिया जिसने शायद गोली चलाई थी। डूबती साँसो के बीच हाँफते हुए बस इतना ही मुँह से निकल सका,
"अ...अव...अविनाश"
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