"एक बात तो है दिनेश भाई, अच्छे लोगों का ही जीवन अक्सर दुख से भरा दिखता है"
"क्या हुआ भई? दार्शनिक मूड में दिख रहे"
"न, कुछ खास बात नहीं, अब सुशीला जी को ही लीजिए, कविता अच्छी लिखती हैं लेकिन न ज्यादा किसी से बातचीत, न ढंग का व्यवहार, न ही कहीं आना-जाना उस पर भी कभी अपनेआप उनके घर यदि आप पहुँच गये तो ऐसा रवैया मानों जल्दी से भगाना हो..."
"हम्म..."
"और सुनील साहब अपने, वाह! आदमी हो तो उनके जैसा, लेखन भी दमदार और व्यावहारिकता के क्या कहने! जब बुलाइए, जहाँ बुलाइए वहाँ हाजिर। घर आये मेहमान को तो हाथों पर उठा के रखते हैं"
"हाँ लेकिन इन बातों का आपकी उस दार्शनिकता से क्या कनेक्शन?"
"कनेक्शन यही कि सुशीला जी को ही परिवार सुख देनेवाला मिला हुआ और बेचारे सुनील जी रोज कलहपूर्ण वातावरण में जीवन गुजारते घर में"
"हाहाहा अच्छा ये! यहाँ बात अच्छे-बुरे इंसान की नहीं भाई जी, सुशीला जी अपना मुख्य समय अपने परिवार को देती हैं और सुनील जी अपने साहित्यिक जीवन को, आपका समर्पण जहाँ होगा, सुख भी केवल वहीं से मिलेगा"
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