"डॉक्टर साहब, आप तो मेरे बेटे से भी छोटे हैं उम्र में लेकिन फिर भी आज आपके पैर पकड़ूँगा" कहते-कहते भावुक हो चुके विख्यात लेखक प्रोफेसर सिन्हा डॉक्टर अमित के पैरों पर झुक गये।
"अरे-अरे अंकल ये क्या कर रहे" अमित ने जल्दी से उन्हें सम्हाला।
"बेटा सभी डॉक्टर हाथ खड़े कर चुके थे। तुमने मेरी बीवी की जान बचा ली"
अमित मुस्कुराता रहा। सिन्हा साहब आगे बोले,
"अब तो बता दो कि फीस क्या हुई तुम्हारी? एक रुपया भी नहीं लिया तुमने अभी तक, सब लाखों का खर्च बता रहे थे"
"नहीं अंकल, आपसे पैसे नहीं ले सकता"
"तुम मुझे पहले से जानते हो क्या? मैं तो कभी तुमसे नहीं मिला"
"अंकल, आपके कॉलेज के पुराने कर्मचारी श्री दयानाथ जी मेरे पिता हैं"
"दयानाथ!" सिन्हा साहब चौंक उठे। उनका मन पैंतीस साल पहले की स्मृतियों में खो गया। जब वे तमिलनाडु में पदस्थापित थे तो दयानाथ वहीं चपरासी था। उसको अक्सर वे अपने घर भी बुला लेते थे घरेलू काम करवाने के लिए। कभी-कभार कुछ पैसे भी दे देते। बहुत सीधा आदमी था वो। उनको लिखते देख खुद भी कुछ लिखने का प्रयास किया उसने। अब इसे संयोग कहें या कुछ और, क्या गजब का उपन्यास लिख डाला उस पहली और आखिरी बार में ही। जब वह उनको अपना वो प्रयास दिखाने लाया तो सिन्हा साहब के मन में चोर आ चुका था। उन्होंने दयानाथ की बीमार पत्नी के इलाज के लिए उसको पचास हजार रुपये दिये और बदले में वह पांडुलिपि ले ली। उसी उपन्यास ने उनको साहित्यिक दुनिया में नयी ऊँचाइयों पर पहुँचा दिया। कई बार सिन्हा साहब के मन में अपने इस कृत्य पर पछतावे का भाव आया था लेकिन उन्होंने उसे सदा झटक दिया। आज वह पछतावा आँसुओं की धार के रूप में बहने लगा था। उनका हाथ अमित के कंधे पर चला गया,
"बेटा, मैं समझ गया तुम्हें क्या फीस चाहिए, मैंने तुम्हारे पिता से उनका यश हथिया लिया था, वो उन्हें वापस करने का समय आ गया है"
आँसू अमित की आँखों में भी भर चुके थे, अंतर केवल इतना था कि उनमें संतोष मिला था"
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