सोमवार, 23 जुलाई 2018

राखी की चमक (लघुकथा)

प्रो. राधिका चुपचाप बैठी थीं। पति संतोष बाबू ने टोका

"किस चिन्ता में हो सुबह से? आज कॉलेज भी नहीं गयी!"

राधिका ने उनको भी हाथ पकड़ के पास बैठा लिया,

"सुनिए न जी, वो साहित्य संस्था के अध्यक्ष पद के लिए अपना नाम वापस ले लेती हूँ मैं"

"क्यों?"

"नहीं, कल भैया को राखी बाँधते समय न बहुत बुरा सा लगने लगा मुझे, वे निर्विरोध जीतते रहे हैं आजतक, मैं भी किन-किन की बातों में आ गयी" राधिका ने सिर पकड़ लिया। संतोष बाबू का भी चेहरा गंभीर हो उठा। अपने बड़े साले दुष्यंत प्रसाद से मिला बड़े भाई के समान स्नेह उन्हें भी उनके विरुद्ध खड़े होने में अपराध बोध करा ही रहा था। वे तुरंत उठ खड़े हुए,

"चलो उनके ही पास, उनसे कह देते हैं कि हम कल भी उनके बच्चे थे, आज भी हैं"

दोनों उसी समय उनके घर पहुँचे। 

"भैया कहाँ हैं भाभी?" राधिका ने पूछा

भाभी अपनी मजाकिया शैली में आ गयी,

"आते-आते भैया, अरे हम कुछ हैं कि नहीं?"

"हाहा आप सबकुछ हैं भाभीश्री लेकिन अभी जल्दी से भैया को बुलाइए"

भाभी ने राधिका को कोने में खींचा और मुस्कुरा धीरे से बोली,

"अरे वो कल राखी बँधवाने बाद से सोच-विचार में पड़े हुए, कह रहे कि मुझे कहाँ राधिका का मार्ग प्रशस्त करना चाहिए था और मैं उसके सामने अड़ रहा हूँ, नाम वापस ले लूँगा, उसी चक्कर में किसी से बतियाने गये हैं"

टेबल पर रखी कल की पुरानी राखी आज और भी ज्यादा चमक बिखेरती दिखाई दे रही थी।

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