रविवार, 30 सितंबर 2018

राष्ट्र प्रहरी (लघुकथा)

बड़ी सियासी पार्टी का राष्ट्रीय अधिवेशन संपन्न हो चुका था। रात गहरा चुकी थी। हर तरफ सन्नाटा पसरा हुआ था। रैनबसेरे में बैठी मंजू बच्चों को खाना खिला रही थी। पास में ही उसका पति मुकेश आराम कर रहा था। तभी कोई महँगी गाड़ी हूटर बजाती हुई उधर से गुजरी। अंदर बैठे युवाओं का "हू-हू" का तेज शोर सुनकर मंजू, मुकेश और बच्चे जरा देर के लिए डर गये। तभी गाड़ी के अंदर से कुछ तिरंगे वाले बैज और टोपियों का बंडल सड़क पर आ गिरा। न जाने किस खुमार में डूबे नौजवानों के पास अब ये चीजें संभालने की फुरसत और होश शेष नहीं था।

मुकेश जल्दी से उठा और सब चीजें इकट्ठा कर अंदर ले आया। मंजू चिढ़कर बोली,

"बड़ी गाड़ी वाले फेंककर चले गये और तुम ये सब संभाल रहे हो। शायद भूल गये हो कि तुम एक रिक्शेवाले हो"

मुकेश ने थके चेहरे पर मुस्कान जुटाई,

"रिक्शा चला के ही सही लेकिन अपना परिवार तो पालता हूँ न? ये देश भी अपना परिवार ही है! इसकी आन-बान-शान कहाँ फेंक दूँ?"

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