मेरे घर में बंदर आया
उसे देखकर मैं घबराया
डंडा एक दिखाकर उसको
छत के रस्ते दौड़ भगाया
अनुभव तभी किया कुछ मैंने
बंदर का चेहरा उदास था
मेरे घर से निकल गया पर
बैठा अभी भी वहीं पास था
पछता के अपनी करनी पर
मैंने उसको पुनः बुलाया
पूछा, भाई क्या दुख तुमको?
बंदर भरे गले से बोला
मैं इंसानों का मारा हूँ
मेरा घर तोड़ा उन सब ने
अब मैं फिरता बंजारा हूँ
इतना कह कर निकल गया वह
दिल कचोटने लगा हमारा
मानव होते हैं क्यों ऐसे!
नोच गए क्यों जंगल सारा?
विशेष - यह कविता काल्पनिक नहीं बल्कि असली है। मुझे मनुष्यों के मुकाबले अधिक सहानुभूति इन निर्दोष जानवरों के प्रति रहती है। मैं जानवरों के प्रति किसी भी तरह की हिंसा के विरुद्ध हूँ। साँप के भी निकलने पर हम उसे मारने की बजाए पुचकार के भगाने को प्राथमिकता देते हैं। आप सब से भी निवेदन है कि सभी जीवों के प्रति दयाभाव रखें
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