दीपावली की रौनक घर से बाहर तक थी। लक्ष्मी-गणेश पूजन के बाद बरामदे में बैठे नीलोत्पल बाबू अपनी देहरी पर जगमग दीयों को निहार रहे थे। तभी पत्नी चित्रांगदा का आना हुआ।
“लीजिए मिठाइयां खाइए”
उसने प्लेट नीलोत्पल बाबू को देते हुए कहा और खुद भी उनके पास बैठ गई।
“क्या देख रहे एक टक से?”
सवाल सुनकर नीलोत्पल बाबू मुस्कुरा उठे,
“देख रहा हूं कि ये दिये किस तरह अंधकार से लड़ रहे हैं! कितनी हिम्मत है इन नन्हें प्रकाशवीरों में!”
“बिल्कुल आप की ही तरह हैं ये भी” चित्रांगदा बोली, “आपने भी तो जीवन भर किया है संघर्ष भ्रष्टाचार के विरुद्ध”
मिठाई खा रहे नीलोत्पल बाबू का चेहरा गंभीर हो उठा। वे रिटायरमेंट के करीब पहुँच चुके थे। अपने पूरे सेवाकाल में उच्च पदस्थ अधिकारियों से भिड़े रहे। भ्रष्टाचार के नीचे पिस रही जनता की करुण पुकार उन्हें कभी चैन से बैठने नहीं देती थी। हर बार उन्होंने विजय पाई और उसके साथ ही एक नयी चुनौती ने जन्म ले लिया। अव्यवस्था के नये अजगर इन दिनों भी उनके चारों तरफ अपना दबदबा बनाने में जुटे हुए थे। नीलोत्पल बाबू ने चित्रांगदा से कहा,
“अँधेरे को कभी मिटाया नहीं जा सकता है चित्रा, जब तक प्रकाश रहेगा तब तक अंधकार भी रहेगा, इन जलते दियों को ही देखो, अंधकार ने अपना समय विपरीत जानकर कितनी कुटिलता से इन के तलों में ही शरण ले रखी है! ज्योंही ये दीपक अशक्त होंगे, अंधकार पुनः इन्हें निगल लेगा”
नीलोत्पल बाबू की बात का अर्थ भाँप कर चित्रांगदा कुछ चिंतित हो गयी। नीलोत्पल बाबू हंस पड़े और मिठाई का एक टुकड़ा उसे खिलाकर बोले,
“घबराओ नहीं, दीया तभी कमजोर पड़ता है जब उसकी बाती उसका साथ छोड़ दे या उसमें भरा घी कम होने लगे, मेरी बाती तुम हो और मेरे बच्चे घी, यानि मेरी ऊर्जा, जब तक तुम लोगों का साथ मुझे मिलता रहेगा, मेरा कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता”
चित्रांगदा ने अपना सिर नीलोत्पल बाबू के कंधे पर रख लिया और उनका हाथ पकड़ कर बोली,
“अमर रहे उजाला” (समाप्त)
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