"भाभी, निकलता हूँ अब, शाम को सरला आ जाएगी आपकी मदद के लिए"
आटे की थैली अपने बड़े भाई मोहन की रसोई में रखते हुए मदन ने उसकी बीवी से कहा और बाहर को चल पड़ा। पीछे से भाभी की आवाज सुनाई दे रही थी,
"अच्छा नहीं लगता भैया सरला को कुछ काम देते लेकिन अब मुझसे होता नहीं भारी काम..."
मदन जानता था कि ये सब बस कहने की बातें। नगरपालिका के चतुर्थवर्गीय कर्मचारी मदन की हैसियत अपने राजपत्रित अधिकारी भाई के घर में एक नौकर से कुछ ज्यादा अच्छी नहीं थी। वह तो अपनी कमजोर आर्थिक स्थिति की विवशता थी जो बार-बार मदन को यहाँ ले आती।
बाहर निकलने पर उसकी नजर अपने भाई मोहन पर गयी। मोबाइल पर आँखें जमाए मोहन बाबू ने उसकी ओर देखना भी जरूरी नहीं समझा। हमेशा की तरह मदन फिर हीनता के भाव से दबने लगा। तभी उसका बेटा अनिल वहाँ आया और कुछ पैसे देता हुआ बोला,
"पापा, जिस ग्राहक के पैसे बाकी थे, उसने अभी मुझे लौटा दिये, ये रहे पाँच सौ"
मोहन बाबू कनखियों से अनिल को देख रहे थे। चाट दुकान चलाकर वह यथासंभव अपने घर में सहयोग देता था। मोहन बाबू के दिमाग में नशे की लत का शिकार बनते जा रहे अपने बेटे अतुल की चिंता फिर तूफान मचाने लगी।
मदन पैसे जेब में डाल अनिल के कंधे पर हाथ रखे खुशी-खुशी घर की ओर चल पड़ा था और हर बार की तरह अब खुद को हीन समझने की बारी मोहन बाबू की थी।
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