रविवार, 9 दिसंबर 2018

हैप्पी विंटर (लघुकथा)

सृष्टि खिड़की से बाहर देख रही थी. आते हुए सर्दी के मौसम की हल्की ठंडी हवा रह-रह के उसे छू जाती. तभी किसी की थपकी कंधे पर महसूस हुई,

“हैप्पी विंटर...”

सृष्टि ने मुस्कुरा के पीछे देखा. ये उसका पति साकेत था. सृष्टि बोली,

“हैप्पी क्या? नया साल थोड़े आ गया! ये तो मौसम का चक्र है! गर्मी, बरसात फिर सर्दी...”

“हाँ वो तो है...” साकेत ने उसके पास रखी कुर्सी पर बैठते हुए कहा, “इसके साथ ही हर मौसम अपने साथ कुछ न कुछ लेकर आता है, इसलिए उसका स्वागत करना चाहिए”

“तो सर्दी क्या लकर आ रही?” सृष्टि ने अपने द्दोनों हाथ साकेत के कंधे पर रख के उसकी आँखों में झाँकते हुए पूछा.

“कुछ न कुछ तो लाएगी ही!” साकेत ने उत्तर दिया. उसी समय उसका नौ साल का बेटा मयूर अपनी गुल्लक लिए वहाँ आया,

“मम्मी, इसको खोल दो...” उसने अपनी प्यारी सी आवाज में कहा. सृष्टि ने उसे गोद में बिठाया और पूछा,

“क्यों भई? आज हमारे बाबू को पैसे निकलने की जरूरत क्यों आ गयी?”

“वो जो सुबह एक लड़का कचरा चुनने आता न! उसके पास स्वेटर नहीं है...मैं गुल्लक के पैसे पापा को दूँगा उसके लिए स्वेटर लाने को”

मयूर बोला. साकेत को हँसी आ गयी. उसने सृष्टि से कहा,

“ये लो, तुम कह रही थी न कि इसबार की सर्दियाँ हमारे लिए क्या लेकर आ रही हैं? हमारे बेटे में अच्छी आदतों की शुरूआत लेकर आई हैं इसबार की सर्दियाँ”

सृष्टि को भी हँसी आ गयी. उसने मयूर को चूम लिया और बोली,

“हैप्पी विंटर” (समाप्त)

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