सोशल मीडिया पर ढोल पीट कर आत्महत्या क्यों?
लाइव सुसाइड का नया शगल
हाल के दिनों में युवाओं में एक विचित्र आदत देखने को मिली है। लाइव सुसाइड करने की या फिर सोशल मीडिया पर ढोल पीटकर आत्महत्या करने की। ये सुसाइड करने से पहले फेसबुक पर एक मार्मिक या गुस्से से भारी पोस्ट लिखते हैं और इसके तुरंत बाद ट्रेन से कट कर, ऊंचाई से कूद कर,जहर खाकर या पंखे से लटक कर आत्महत्या कर लेते हैं ऐसे लोग या तो अपने किसी प्रियजन या आत्मीय संबंधी को अथवा अपने लवर को वीडियो कॉल करके उसके सामने भी सुसाइड कर लेते हैं या मरते वक्त अपना वीडियो खुद ही तैयार करके छोड़ जाते हैं। हाल ही दिल्ली में एक विवाहित युवक ने लाइव सुसाइड को अंजाम दिया. कुछ समय पहले कोलकाता में ऐसी २ से ज्यादा घटनाएं हुईं . क्लास १२ के स्टूडेंट ने अपनी प्रेमिका को वीडियो कॉल किया और लाइव सुसाइड को अंजाम दिया. इससे पहले एम्स की एनेस्थिसिया विशेषज्ञ प्रिया वेदी का मामला भी मीडिया की सुर्ख़ियों में आया. बाद में पता चला कि प्रिया का पति होमोसैक्सुअल था। प्रिया उसकी इस आदत से बेहद दुखी थी। उसे अपनी जिंदगी से ऊब और नफरत हो गई। उसने अपने फेसबुक अकाउंट पर अपनी दर्द भरी दास्तां पोस्ट कर दी और अपने पति पर धोखाधड़ी का आरोप लगाया।
एक के बाद एक,कई मामले
कुछ समय पहले एक आइएएस ऑफिसर का वीडियो भी आया जिसमें उसने अपनी पत्नी और मां के बीच होने वाली रस्साकसी और आए दिन होने वाले कलह से दुखी होकर आत्महत्या कर ली। इससे पहले 35 वर्षीय मराठी फिल्म प्रोड्यूसर अतुल तपकीर ने आत्महत्या करने से पहले फेसबुक पर अपनी पत्नी पर मानसिक व शारीरिक अत्याचार का आरोप लगाते हुए पुणे के होटल में जहर खाकर अपनी जान दे दी। मुंबई के 24 वर्षीय स्टूडेंट अर्जुन भारद्वाज की आत्महत्या देश भर के अखबारों में सुर्खी बनी जिसने बांद्रा के एक होटल की 19 वीं मंजिल से छलांग लगाने से पहले एक लाइव ट्यूटोरियल वीडियो बनाया कि सुसाइड कैसे करें। सोनीपत का तकनीशियन दीपक भी अपने घर में पंखे से लटकने का लाइव वीडियो बनाकर मरा।
इंटरनेट पर बढ़ती निर्भरता का दुष्परिणाम-
कई बार विशेषज्ञों को ताज्जुब होता है कि जो व्यक्ति मरने से पहले इतना संयत रहता है कि अपने अंतिम विचारों को धैर्यूपर्वक फेसबुक पर लिख दे या अपनी बात कहकर एक वीडियो बना ले वह मरने जैसा बड़ा और नासमझ कदम कैसे उठा सकता है। मनोचिकित्सक डॉ.संजय गर्ग कहते हैं, दरअसल यह इंटरनेट पर लोगों की बढ़ती निर्भरता का दुष्परिणाम है। ये लोग इंटरनेट पर मन की बात कहते हैं जहां इन्हें सही सलाह देने वाला, पुचकारने वाला और हिम्मत या प्रेरणा देने वाला मौजूद नहीं होता। अगर अपने किसी मित्र या रिश्तेदार से अपनी बात शेयर की जाय तो 90 फीसदी मामलों में इस परिणति से बचा जा सकता है। मूल समस्या यह है कि हमें इंटरनेट का इस्तेमाल करने का अवसर और आजादी तो मिल गई, लेकिन इसे इस्तेमाल करने का सही तरीका नहीं सिखाया गया। हम सोशल मीडिया पर इतने निर्भर हो गए हैं कि वास्तविक बातचीत ने अपना महत्व और मायने ही खो दिया है।
भावनात्मक प्रतिशोध की भावना और हताशा का परिणाम-
समाजशास्त्री रेखा श्रीवास्तव कहती हैं कि कई बार लोग सोशल मीडिया पर अपनी हताशा, अवसाद या दुख का बखान इसलिए करते हैं कि वे ज्यादा से ज्यादा लोगों को अपनी दुर्दशा या मानसिक वेदना बता सकें। उन्हें हल नहीं, अपने दुख का प्रचार करना और प्रताड़ना देने वाले या जिनसे शिकायत होती है उन्हें ज्यादा से ज्यादा लोगों के बीच बदनाम करना होता है। उनके मन में संभवतः यह विचार चल रहा होता है कि इस प्रकार वे खुद को सताने वाले को सजा दिलवा पाएंगे और उन्हें मरने के बाद ही सही न्याय जरूर मिलेगा। कम से कम उसकी समाजिक बदनामी होगी, तो उसका भी जीना दूभर हो जाएगा। यहां उसकी मंशा खुद को प्रताड़ित और पीड़ित बताकर सहानुभूति लूटने की भी होती है। अध्यापक कुमार गौरव अजीतेन्दु का मानना है कि अवसाद की पराकाष्ठा के कारण होता ये सब। जो लोग स्वयं को किसी विशेष व्यक्ति अथवा समूह के सामने व्यक्त/ सिद्ध नहीं कर पाते, वे इस प्रकार से अपनी कुंठा निकालने में विश्वास रखने लगते हैं। कहीं न कहीं भावनात्मक प्रतिशोध लेने की भी मंशा को नकारा नहीं जा सकता।
ऐसे करें मदद –
अगर आप किसी व्यक्ति की ऐसी निराशाजनक, अवसादग्रस्त और आत्महत्या की धमकी य़ा पूर्वसूचना वाली पोस्ट देखें, तो उसकी मदद कर सकते हैं। आप चाहें तो किसी सामाजिक संस्था, कौंसलिंग सर्विस देने वाले एनजीओ या मेंटल हेल्थ ऑर्गेनाइजेशन को सूचित कर सकते हैं। पुलिस या सायबर सेल को सूचित करने पर भी उस व्यक्ति को ऐसा घातक कदम उठाने से रोकने की कोशिश की जा सकती है। मुंबई की संस्था आसरा फेसबुक पर सुसाइड अलर्ट के मामलों में मदद देती है।इस संस्था के निदेशक जॉनसन थॉमस का कहना है कि सोशल मीडिया पर आत्महत्या की घोषणा लोगों का ध्यान आकर्षित करने के लिए की जाती है। कई बार कंजर्वेटिव फैमिली में लोगों को अपनी बात कहने का मौका नहीं दिया जाता। इसलिए वे ऐसा कदम उठाने के लिए मजबूर हो जाते हैं।
-शिखर चंद जैन
SHIKHAR CHAND JAIN
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