साहित्य एक ऐसा माध्यम है, जिससे हम अपनेआप को व्यक्त करने के साथ-साथ दुनिया की विभिन्न विचारधाराओं के नवीन पक्षों से भी अनायास ही परिचित हो जाते हैं। रहस्य-रोमांच से भरा साहित्य जहाँ हमारी कल्पनाओं में थ्रिल लाता है, वहीं प्रेम रस में पगी रचनाएँ हृदय के कोमल पक्ष को मुग्ध कर जाती हैं। एक समय था कि जब लिखने के उचित प्लेटफॉर्म आम लोगों के लिए उपलब्ध नहीं थे और तब उपन्यासों का दौर हुआ करता था। साथ में पत्र-पत्रिकाएँ भी अपने उत्कर्ष पर थीं। पाठक वर्ग विस्तृत था। समय के साथ आज स्थितियाँ बदली हैं और एक बड़ा पाठक वर्ग स्वयं ही लेखन की ओर आकृष्ट हुआ है। निश्चित रूप से आज सोशल मीडिया और इंटरनेट ने काफी अच्छे मंच भी दिए हैं जिनसे आम जनमानस भी अपनी बात रखने लगा है।
लेखन के क्षेत्र में ये रुचि स्वागतयोग्य है और कई लोग बहुत अच्छा लिख भी रहे हैं परन्तु यहाँ अक्सर एक चीज का अभाव देखने को मिल जाता है, वह है विधागत लेखन का। किसी भी क्षेत्र की एक विधा होती है, तरीका होता है। चाहे खेल हो या कला-संगीत, सबमें कुछ निर्धारित अनुशासन है। साहित्य भी इसका अपवाद नहीं है। जल्द से जल्द कुछ भी लिख कर विभिन्न सोशल मीडिया मंचों पर डालकर लाइक-कमेंट्स की वाहवाही लूटने की प्रवृत्ति जोर पकड़ चुकी है। सोशल मीडिया के अलावा इस प्रवृत्ति को आजकल वैसी पत्रिकाओं से भी प्रोत्साहन मिल रहा है, जिनका कोई उद्देश्य नहीं होता। वह केवल विज्ञापन लेने या फिर गुटबाजी के लिए स्थापित कर दी जाती हैं। युवावर्ग ध्यान दे कि केवल कुछ भी लिख देना साहित्य नहीं होता है। जिस प्रकार बिना लक्ष्य का तीर निरर्थक हो जाता है, उसी प्रकार बिना विधा में लिखी गयी कोई रचना लंबे समय तक नहीं टिक सकती।
कठिन नहीं है सीखना
साहित्य की स्थापित विधाओं के प्रति युवाओं के मन में अरुचि या कहें तो एक डर कहाँ से आ गया है? इसको तो समझना कठिन है क्योंकि वे कईबार साहित्य में अनुशासन के नाम से ही बिदक उठते हैं कि हमसे नहीं होगा! अरे, भई! कैसे नहीं होगा? आप जो मिट्टी का पुतला हाथ से गढ़ रहे हैं, उसको साँचे में डाल देंगे, बस! मुख्य बिंदु है कि आप सीखना चाहें तब तो! साहित्य में जब सोशल मीडिया ने अपना योगदान शुरू किया तो फेसबुक पर ही ऐसे कई समूह बने थे जिनमें गजब की कलाकारी थी। लोग खेल-खेल में लिखना सीख रहे थे। आज सात-आठ सालों में हालत ऐसी हो गयी है कि वे समूह निष्क्रिय हो चुके हैं। यहाँ मैं बात उन बड़े-बड़े पत्र-पत्रिकाओं की नहीं कर रहा हूँ जहाँ प्रसिद्ध साहित्यकार या फिर अनेक प्रतिभाशाली लेखक छपते हैं। विषय है "बेंच स्ट्रेंथ" का। अगर नयी पीढ़ी विधागत लेखन के प्रति उदासीन रहेगी, तो आगे चलकर साहित्य किस दिशा में चला जाएगा?
अपने लेखन को इन विधाओं में दीजिए दिशा
आपकी रुचि अगर गद्य में है तो उपन्यास, कहानी और लघुकथा जैसी सशक्त विधाएँ हैं। लघुकथा तो आज बेहद लोकप्रिय हो चुकी है। छोटी सी रचना होती है लेकिन इसको बारीकी से सीखने-समझने के बाद ही आप इसमें दक्ष हो सकेंगे। आप चाहें तो व्यंग्य भी लिख सकते हैं। इसमें भी अच्छा स्कोप होता है।
यदि आप पद्य पसंद करते हैं तो भारतीय शास्त्रीय छंद (दोहा, कुंडलिया, घनाक्षरी आदि), गीत-नवगीत, गीतिका के अलावा जापानी काव्य विधाएँ हाइकु, चोका, ताँका, सेदोका आदि हैं। लोक प्रचलित मुक्तक आज पद्य में खूब लोकप्रिय है। इसका अपना अनुशासन होता है। आज की पसंदीदा पद्य विधा "अतुकांत कविता" भी है लेकिन इसको लिखते समय इतनी सावधानी जरूरी है कि कविता, कविता की सीमा में रहे, गद्य की ओर न चली जाए। ये सब कुछ किसी जानकार के साथ थोड़ी सी मेहनत कर के सीखा जा सकता है।
अनुशासन जरूरी है
ऊपर जिन विधाओं के (पद्य विधाओं के) नाम बताए गये हैं, उनमें से अधिकतर के लिए मात्रा या वर्णों अथवा दोनों की संख्याएँ निश्चित होती हैं। यही सीखने की चीज है। छंद सुंदर-सुंदर मात्रिक क्रमों वाले हो सकते हैं, जिनकी लय आपको मोहित कर देगी। गीत-नवगीत और गीतिका भी इसी नियम की सहचरी है। हाइकु जैसी विधाएँ छोटी लेकिन मोटी बातें कह जाती हैं। क्षणिका भी एक धारदार माध्यम है। आप अपनी क्षमता और रुचि के अनुसार एक या ज्यादा विधाओं में खुद को सिद्ध कर सकते हैं।
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