भावना के ढेर को ताड़े हृदय
कुछ मिले ऐसा कि रचनाकर्म हो!
बंद दरवाजे खुलें आनंद के
बोल गूँजें गीत, कविता, छंद के
ताक में चिंतन, कहीं कुछ मर्म हो!
कामनाएँ जो तनिक सुलझी हुईं
मौन के व्यापार में उलझी हुईं
रक्त उनका भी तनिक अब गर्म हो!
नैन दर्शक रह लिए लंबे समय
अब पुनः साक्षी बनें, करते विनय
दृष्टि का सार्थक धरा पर धर्म हो!
हो नवलता का यथोचित आचमन
भूत जो इच्छा बनी, उसको नमन
चाह, मृगछाला उसी का चर्म हो!
- कुमार गौरव अजीतेन्दु
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