छुट्टी का दिन था। दँतुल बाबू आराम से नहाकर तोंदपर हाथ और बालों में कंघा फेरते आईने के सामने खड़े हुए ही थे कि मोबाइल टनटना उठा
"हैलो, कौन?"
"सर मैं जेडी इंटरप्राइजेज से महेश कुमार बोल रहा हूँ, आप हमारे भाग्यशाली ग्राहक बने हैं और आपके लिए हमने एक लोन का बड़ा पैकेज निश्चित किया है जो आप आज संध्या छः बजे हमारे शामियाना अपार्टमेंट, एन. के. मेहता रोड स्थित कार्यालय में पधारकर प्राप्त कर सकते हैं"
"अरे काहे लें लोन-वोन? ये कोई गिफ्ट हुआ? चुकाना भी तो हमहीं को पड़ेगा!"
"उसकी चिंता तनिक भी न करें सर, जब भी चाहें चुका दें अथवा न भी चुकाना हो तो कोई बात नहीं, शेष बातें शाम को करते हैं, धन्यवाद"
इसके बाद फोन उधर से कट हो गया। दँतुल बाबू के पैर अब जमीनपर नहीं थे। जिस मुफ्तिया गोवा समुद्रीतट के सपने देखते-देखते बचपने से पचपना आ गया वह अब एकदम आँखों के सामने नाचने लगा, मुलायम रेतीली भूमि, अठखेलियाँ करतीं जलपरियाँ, ज्वारभाटा। सुखस्वप्न में लीन सूरत के मुस्कुराते खुले मुख में आगे के दो खरगोश ब्रांड दाँत जिन्होंने उनको दाताराम से दँतुल बाबू बनवाया, शोभायमान हो रहे थे। तभी पानी के मोटे से थपेड़े ने हड़बड़वा दिया
"यहाँ सोफेपर मुँह फाड़े क्यों गिरे हो? किसका फोन था?"
"अरे तुमको चाँय-चाँय के अलावा कुच्छो और आता है कि नहीं? केतना बढ़िया सपना देख रहे थे"
"सपना गया चूल्हे में, किसका फोन था ऊ बताओ"
खिसियाए दँतुल ने पूरी बात बताई। चटपटिया उछल पड़ी
"अरे तऽ उस समय से नहीं बताना था"
दँतुल जी कुड़कुड़ा उठे, हुँह, अभी-अभी फोन आया और सिरपर सवार हो गयी तब भी कहती है कि उस समय से नहीं बताना था, जइसे पाँच घंटे पहले का मैटर सब। इतने में उनकी सबसे छोटी साली जो वहीं रहके पढ़ाई करती थी, अपने कमरे से दौड़ी आई
"जीजा, आज तो पार्टी ले के रहेंगे"
"ए देखो कल्याणी, हमको एही सब अच्छा नहीं लगता है, बात-बातपर पार्टी दें, आँय?"
"नहीं दोगे! अभी बताते हैं"
कल्याणी ने उनको वापस सोफेपर धकेला और गुदगुदी शुरू कर दी
"ए-ए हीहीहीही, ऊ-ऊ हाहा हूहू छ...छोड़...छोड़ो...हाहाहीखीखी" गुदगुदास्त्र ने दँतुल बाबू के मुख से हँसीनाक चीखें निकलवानी आरंभ कर दी। पल दो पल में वहाँ पहुँची उनकी सुपुत्री फुलौरी ने भी अपनी मौसी के कंधे से कंधा मिला दिया। नारीशक्ति के दोहरे आक्रमण को झेलते पतिपर दया दिखाने की बजाए चटपटिया अपने समुदाय का उत्साह बढ़ाने में कोई कसर नहीं छोड़े थी
"हाँ-हाँ, कमर के पास कर, बहुत वीक प्वाइंट है इनका, कंजूस-मक्खीचूस, अपने ऑफिस का बड़ा बाबू और यहाँ एक रुपया खर्चने में आनाकानी..."
तभी सबकुछ सुन रहा भतीजा छन्नू गुसलखाने से तीर की तरह निकला और दँतुल की लुंगी चीरहरण के स्टाइल में सर्रर्र से खींच के वापस भागा
"चचा, कितनीबार बोला है कि कपड़े मुझे दे दिया करो अपने धोने के लिए"
"एऽ हीहीही...हाहा साला एक ठो रुमाल कभी नहीं धोया आउर आज लुंगी का बात...खीखीहूहू...ऊ भी पहना हुआ उतारेगा रे? पगला गया है ससुरा...हाहाहा" अब मात्र गंजी-कच्छे में अपनी इज्जत को लपेटे, हँसी की पीड़ा सहते दँतुल का दारुण स्वर फूटा लेकिन त्रिदेवियों को पिघलाने में असफल रहा। पाँच मिनट होते-होते दँतुल भैया जान गये कि अब यदि ये सब न रुका तो उनका लघुशंका रूपी समर्पण तय है अतः हथियार डाल गये
"अबे...खीखीखी...रु...रुक...हीहीहीही...क...कितना पइसा चाहिए?"
"हाँ, अब आए रस्तेपर" कल्याणी विजयी भाव चेहरेपर सजाए खड़ी हुई "कोई पैसा-वैसा नहीं, हम आज बाजार जाकर अपने-अपने पसंद की शॉपिंग करेंगे और जो बिल होगा लाकर दे देंगे, भर आना, बड़ा पैकेज मिल रहा लोन का और दस-पाँच देकर टरका रहे"
"ठीक है हम्फ...हम्फ जाओ जल्दी" हाँफते हुए दँतुल बाबू ने मुसीबत को तत्काल दूर करना ही उचित समझा। तीनों बोरीशेप के कई झोले उठाके चल पड़ीं। उनके जाने के बाद नयी लुंगी बाँध बाल-वाल सँवार के दंतुल जी बिस्तरपर बैठे ही थे कि कॉलबेल बज उठी
"ओह अब क्या मुसीबत आ मरी?" सोचते घबरा दरवाजा खोला। पड़ोसी टुन्नामल कुनबे के साथ खड़ा था।
"हेंहेंहें दँतुल भैया, बधाई हो, छतपर आपका आज्ञाकारी भतीजा छन्नू कपड़े सुखा रहा था, उससे ही पता चली आपके फ्री लोन गिफ्ट मिलने की सुखद खबर, इसी खुशी में आपके साथ नाश्तारूपी प्रसाद हम भी ग्रहण कर लेंगे, यही सोचकर चले आए"
दँतुल बाबू परेशान। देवियाँ तो बिना कुछ पकाए ही खरीदारी करने भाग गयी थीं सो पास के महँगे होटल से सबकुछ मँगवाना पड़ा। तिसपर भी टुन्नामल के दस साल के बेटे की डिमांड बीच-बीच में फुल ताव के साथ
"अंकल, कचौरियाँ और मँगाओ...जलेबी से मन नहीं भरा...लड्डू भी" टुन्ने की पत्नी तो आठ रसगुल्ले खाकर भी कहती, भाईसाहब, बस चार ही और मँगाइगा" और तो और, जाते-जाते उनकी लाडली टेबलपर रखी कीमती क्लॉक भी उठा गयी। दँतुल कुछ कहते इससे पहले ही टुन्ने ने प्लेट में बची आखिरी पूरी उठाकर मुँह में ठूँस दी, हेंहेंहें ले लो बेटी, ले लो, चाचा प्यार से दे रहे हैं। बेचारे दँतुल बाबू के पूरी निगलते-निगलते वे लोग नौ दो ग्यारह हो चुके थे।
जैसे-तैसे सारा मामला निपटा। टोटल हिसाब देखा तो पाँच हजार का। गरियाते मन से बैरे को रुपये पकड़ाए और वापस बेडपर लेट गये। नींद में खोते ही सुहाने ख्वाबों ने पुनः राग छेड़ दिया। अचानक पीठपर मसाज की अनुभूति पा नयन खुले तो भतीजा सेवाभाव से रत मिला।
"चचा, आज तो बाइक के पैसे दे ही दो"
"घोंचू कोई पचास हजार की बाइक खरीद...हाय रेऽ" बात पूरी होने से पहले दर्द का अहसास पूरा हो गया। न की गुंजाइश ने ही भतीजे के हाथ जरा जोर से चलवा दिये थे
"कब से कह रहा हूँ और आज तो शाम को लाखों रुपये मिलने ही वाले" वो दाँत पीसते हुए गुर्राया "समझते नहीं हो आप न! किसी दिन लोकल बस से गिर के मर-मुरा गया तो पुलिस आपको ही ले जाएगी कि गाँव का खेत हथियाने के लिए चाचा ने भतीजे की हत्या करवा दी"
उसकी इसबात में छिपे गूढार्थ को ताड़ते ही दँतुल को सचमुच घबराहट होने लगी। आज ये नहीं मानेगा, सोचकर पूरी शराफत का प्रदर्शन करते हुए अलमारी से पचास हजार निकाल के पकड़ा दिया "ले भाग"
छन्नुआ उनको जोरदार किस कर बाहर की ओर दौड़ गया। तलमलाते दँतुल भैया पीछे से मुक्का दिखा के वापस सो गये। थोड़ी देर बाद चटपटिया, कल्याणी और फुलौरी संग घर लौटी। एक चपत घुसते ही लगाई
"ओय उठो जी"
"हाँय क्या हुआ" हकबका के उठे
"ई लो पकड़ो, सामानों की रसीद, सब डिस्काउंट ऑफर सेल में से लाये हैं हम खर्चा बचाके"
रसीद देखी तो हार्ट राजधानी एक्सप्रेस हो गया, एक लाख दस हजार रुपये!
"दिमाग खराब हो गया का रे तुमसब का? सात-सात हजार का सूट लिया जाता है?"
"ओ पापा, ये सब दस-दस हजार का था, छूट से लाए हैं सात में" फुलौरी इठलाती बोली
"भेजा मत खाओ, कौन सा तुम्हारी तिजोरी से जाना? फोकट की लॉटरी लग ही गयी है तो कब काम आएगी?" कल्याणी उँगलियाँ नचाके सुबहवाली गुदगुदिया त्रासदी की याद ताजा कराते धमका गयी। दँतुल ने आगे कुछ न ही बोलना सही जाना। दोपहर का खाना-पीना हुआ। उतनी देर में छन्नू नयी बाइक लिए आ गया।
"वाओ भैया, नयी मोटरसाइकल!" फुलौरी उछल के पिछली सीटपर सवार हो गयी। मोहल्ले के राउंड मारते-मारते साढ़े पाँच हो गये। सभी फटाफट तैयार होकर बताए पतेपर पहुँचे। चारों ओर नजरें घुमा लीं। कोई बैंकिंग संस्था जैसी चीज सूझ नहीं रही थी। वहीं की एक किराना दुकान से पूछा
"भाई ये जेडी इंटरप्राइजेज का ऑफिस किधर है?"
अंदर बैठे तेरे नाम मूवी के सलमान कट जुल्फोंवाले बंगाली बाबू चहक उठे
"अरे ये ही तो हाय जेडी इंटरप्राइजेज, देखो बोर्ड भी बनवा के माँगवा रखा, कल टँगाय लेगा"
"क्या? ये है जेडी इंटरप्राइजेज?" कोने में पड़ा बोर्ड देख सब के सब चौंक पड़े
"हाँ-हाँ बंधु, याही हाय जेडी इंटरप्राइजेज, हम झुनझुना दा, औपने ही नामपर इस दुकान का नाम तो सोचा"
"लेकिन हमको तो सुबह किसी जेडी-वेडी के दफ्तर से फोन आया कि लोन का बड़ा पैकेज मिलनेवाला फ्री में" मुँह में आते कलेजे को किसी प्रकार बैक गियर में निगल दँतुल बाबू दीनभाव से बोले
"उड़ी बाबा, आप दाताराम जी? बैठो-बैठो, कॉल हमारा ही स्टाफ किया था, ऊ पाहिले किशी कॉल सेंटर में था सो इश नयी दुकान के एडवरटाइजमेंट के लिए ऐशा आइडिया सोचा, देखो सक्सेसफुल हुआ, कित्ता शारा लोग एकसाथ आ गये हींहींहींहीं"
"मगर वो लोन..." दँतुल प्यारे को दुनिया घूमती नजर आने लगी थी
"आरे हाँ बाबा, लो पाकड़ो औपना लोन का पैकेज" कहते हुए नमक के ढाई-ढाई सौ ग्राम के पाँच पैकेट पकड़ा दिये
"ये क्या नमक?" चटपटिया हैरत से बोली, दँतुल जी तो बस उछलते दिल को किसी तरह से थामे उस बंगाली को ताक रहे थे
"हाँ लवण, अशल में हमारे स्टाफ का हिंदी बहुत तागड़ा हाय, वह लवण को खाँटी हिंदी में लोन बोलता"
चकरा के गिरते दँतुल बाबू को झुनझुना दा के शब्द टूटे-फूटे से सुनाई दिये
"ई बेहोश काइको हो गया?" (समाप्त)
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