शुक्रवार, 13 जुलाई 2018

मोमबत्तियाँ (लघुकथा)

"क्या बात है मनोहर भैया? ऐसे मुँह लटकाए क्यों बैठे हो?"

"अरे क्या बताऊँ यार, दो-चार दिनों से धंधा मंदा है। जितना आजकल पैसे की जरूरत है उतना ही......."

"हम्म दरअसल इधर कुछ और दुकानें किराने की ही खुल गईं हैं न सो उसका भी असर पड़ा होगा"

तभी अखबारवाला अखबार डाल गया

"अरे मनोहर भैया ये देखो चलती गाड़ी में बीटेक की छात्रा के साथ गैंगरेप, हालत नाजुक, लोगों में भारी आक्रोश"


"अरे तो क्या नया है? हद से आगे बढ़ने की सबको लत लगती जा रही है, ये सब तो होगा ही"

"ओह्हो वो नहीं, अब कम से कम अगले कुछ दिनों में तुम्हारे दुकान की सारी मोमबत्तियाँ तो बिक ही जाएँगी दनादन हा हा हा"

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