सोमवार, 16 जुलाई 2018

भ्रष्टाचार (लघुकथा)

"अरे इतने से नहीं होगा भाई, बात समझो। तुम्हारे लिए ही इतने कमपर तैयार हूँ कि गरीब आदमी हो और तुम उसमें से भी.........."

"नहीं भैया, अभी इससे ज्यादा है ही नहीं। दुकान भी कुछ दिनों से बंद रखनी पड़ी इसी भागदौड़ के कारण सो..............."

"ओह्हो, क्या यार तुमलोग भी.........रुको फोन आ रहा है, जरा बात कर लूँ...............हाँ दीनदयाल जी, कहिए......अच्छा अच्छा जी याद है, कल एकदम समयपर आ जाऊँगा..........अरे आपलोग हमारे समाज के लिए ही तो इतना कुछ कर रहे हैं........जी बिलकुल हमसब मिलकर लड़ेंगे इस भ्रष्टाचार से.......जी ठीक है, आ जाऊँगा कल...............हाँ भाई बोलो तुम अब, कितने का इंतजाम हो पाएगा? फाइनल बताओ"


"प.....पाँच हजार तक का..............."

"लाओ दो, जाओ देखता हूँ क्या हो पाता है........अरे मैनेज करना पड़ता है कई को, अपने लिए थोड़े माँग रहा। पूरी कोशिश करुँगा कि इतने में हो जाए, नहीं हुआ तो फिर परसों आना, कल थोड़ा काम है मुझको भी, अच्छा नमस्ते"

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