सोमवार, 16 जुलाई 2018

बदनामी (लघुकथा)

"देखिए जी, ऐसा करके आप हमारी बेटी की जिन्दगी ही तो बरबाद कर रहे हैं, छोड़ दीजिए न ये जिद"

"तुम चुप रहो, समाज में मुझे मुँह दिखाना है। उस आवारा लड़के को अपनी बेटी नहीं दे सकता मैं, कुँवारी बैठी रहे सारी उम्र वो मंजूर है"

"वो लड़का आवारा है? डॉक्टरी की पढ़ाई की है उसने, अपना क्लीनिक है, अच्छे घर से है तब भी.........."

"तुमको तो कुछ समझ में आता नहीं, बस बीच में आ जाओगी बोलने। हमारी बिरादरी का नहीं है वो, रहन-सहन अलग है, ऊपर से ये इश्क करने का भूत चढ़ानेवाले लोग कभी अच्छे हो ही नहीं सकते। किसी से कुछ बोलने की जरूरत नहीं इसबारे में, मैंने जहाँ बात कर ली सो कर ली"


"लेकिन जरा सोचिए जिस लड़के के साथ हमारी बेटी की शादी होगी उस लड़के का जीवन भी तो बेकार में तबाह हो सकता है..........और जिस बदनामी के लिए आप आज डर रहे हैं वो तो तब भी हो सकती है"

"उस लड़के की चिंता हम क्यों करें? हमारा काम अपनी परंपरा के अनुसार बेटी को ब्याह के विदा करना है, किसी के जीवन का ठेका लेना नहीं और हाँ, बेटी के कारनामों से पिता बदनाम होता है और पत्नी के चाल-चलन से पति, सो बाद की कोई बदनामी हमारे सिर नहीं आएगी, तुम निश्चिंत रहो"

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