आज फिर तालाब से हंसों के अंडे चुराकर लौटे साँप को बीवी से डाँट पड़ी,
"क्या जरूरत रोज-रोज जान जोखिम में डालने की? अरे यहीं आसपास का कुछ ले आया करो"
साँप फुफकारा,
"चुपकर मूर्ख मादा। तुझे क्या पता दुनियादारी? हमारी कौम न खतरे में आ जाए अंडे न चुराएँ तो? और तालाब में हमको कोई खतरा नहीं। वहाँ के हंस आकार-प्रकार और वर्ण में बँटे हुए हैं। उनके प्रतिनिधि बगुले हैं। हमारे समुदाय के एकमुश्त समर्थन तथा किन्हीं दो-तीन तरह के हँसों के बहला-फुसलाकर लिए गये साथ से वे जीत जाते हैं। रही-सही कसर अन्य जीव जैसे मछलियाँ, घोंघे आदि अपने स्वार्थ या डर में पूरी कर देते। अपनी ही दादागिरी है वहाँ तो"
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