फूँक जो मुझको रहे
मैं तो उन्हीं में पल रहा हूँ
पुष्ट करते स्वयं वे
अस्तित्व मेरा नित्य ही
राम के हिस्से में आता
खोखला साहित्य ही
भेजूँ क्यों मारीच को
खुद ही जगत को छल रहा हूँ
देख लंका को पसरते
लुप्त सीता हो रही
तब हरण की क्या जरूरत
शुद्धता जब खो रही
भोगवादी सोच का
सिरमौर बनकर चल रहा हूँ
भाग्य क्या! सौभाग्य ये
जो योग्य वंशज मिल गये
स्वप्न सब मेरे अधूरे
पुष्प जैसे खिल गये
आदमी से आदमी में
रूप नये ले ढल रहा हूँ
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