मंगलवार, 17 जुलाई 2018

दीख रही है आस

खुद को देखा आपमें, तभी बढ़ाया हाथ।
नित कड़ियाँ जुड़ती गयीं, बना सदा का साथ॥

यही गुजारिश वक्त से, करता है दिल रोज।
तुझतक जाता रास्ता, ले आए वो खोज॥

उलझी-उलझी जिन्दगी, प्यास करे बेचैन।
खाली जाते दिन सभी, बहुत चिढ़ाती रैन॥

अक्सर आकर कान में, कहता है एकांत।
अनजाने में लिख गये, नाटक एक दुखांत॥

उत्तर मेरे प्रश्न का, नहीं तुम्हारे पास।
तबही तुमको मौन में, दीख रही है आस॥

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