सोमवार, 23 जुलाई 2018

शोक (लघुकथा)

अर्थी उठने के लिए सज रही थी। बेटे-बहुओं से ज्यादा संवेदना पड़ोसियों के चेहरों से टपकती दिखी और नाती-पोते, दामाद तो हँसने की बेशर्मी से भी नहीं चूकते थे, हाँ बेटियाँ जरूर कुछ औपचारिकता निभाती मिलीं। तभी देखा कि कोई फूट-फूट के रो रहा है, मुझे जिज्ञासा हुई कि ये कौन? किसी से पूछा तो पता लगा मृतका की देवरानी का बेटा है तथा मानसिक रूप से विकलांग। मेरी आँखें न जाने क्यों उसी पर टिक गयीं। उसके आँसुओं की हर बूँद एकदम सच्ची लग रही थी। उसी समय मेरे पीछे से एक बुजुर्ग बड़बड़ाते निकल गये,

"आज के जमाने में पागल ही तो किसी से सच्चा प्यार करते हैं बाबू!..."

मेरा दिल बहुत देर तक कचोटता रहा।

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