मंगलवार, 24 जुलाई 2018

होलिकादहन (लघुकथा)

कॉलोनी में होलिकादहन के दौरान बच्चों का उत्साह पूरे जोर पर दिखा। पिंकू भी ताली बजा-बजा के धमाचौकड़ी में मगन था तभी उसकी माँ राधिका ने उसे बुलाया और रोटियों का बंडल थमाते हुए कहा,

"बेटा, देखो कोने में तुम्हारे दोस्त तुम्हारी राह देख रहे हैं, जाओ, उनको भी खाना खिला दो, अपने नाच-गाने में उनको भूल गये क्या?"

पिंकू ने देखा तो किसी कार की ओट में दुबके वही चार पिल्ले जिनको वह रोज रोटी देता था, दुबके उसकी ओर ही देख रहे थे लेकिन शायद भीड़-भाड़ से घबराकर वहाँ आये नहीं! पिंकू को अपनी गलती का अहसास हुआ। वह रोटियाँ लिए उधर भागा। उसके पिता ने राधिका को टोका,

"अरे काहे के लिए उसको उधर भेज दिया? अच्छा-भला यहाँ सबके साथ था"

राधिका की आँखें कूँ-कूँ करते रोटियाँ खा रहे पिल्लों को निहार रही थीं। वो बोली,

"उत्सव की धूम में लाचारों को भूल जाना भी एक बुराई है, मैंने अपने बच्चे के मन की उस बुराई का दहन करने की कोशिश की है बस"

पति की आँखों में चमक आ गयी। उसे इसबार का होलिकादहन कुछ विशेष सार्थक लग रहा था।

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