सोमवार, 16 जुलाई 2018

आन (लघुकथा)

"हाँ-हाँ, वो साड़ी भी उसी की दी हुई है, लाओ उसे भी रखो यहाँ। सब लौटाना है वापस। क्या समझता है खुद को? अरे बड़ी बहन हूँ उसकी। कलतक मेरी उँगली पकड़ के चलता था, आज बड़ा बीवीवाला हो गया है। मैं भी दिखाती हूँ अब अपनी आन" मालती देवी बड़े गुस्से में थी।

"छोड़ो न माँ, तुम बेकार में इतना सोचती हो, सबकुछ तुम्हारी इच्छा से तो नहीं होगा न.........." बेटी सारिका ने साड़ी पकड़ाते हुए कहा।

"चुपकर तू, तुझे क्या समझ है रिश्तेदारी की? बहुत बड़ा हो गया है वो??? शादी नहीं हो रही थी। पैंतीस बाद मैंने करवाई जैसे-तैसे"


"अरे माँ, ये लो, सोने की चेन और ये दो अँगूठियाँ, ये भी मामा की ही दी हुई है। रखो इसे भी वहीं"

"अब तू और मेरा दिमाग खराब मतकर। रख उसे वापस अलमारी में। मैं यहाँ सामानों का हिसाब कर रही हूँ"

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