फिसल रहा मुठ्ठी से बचपन
रोकूँ तो रोकूँ कैसे!
सपनों का ये जिद्दी जमघट
खुद में ही उलझाता है
यौवन की यदि नहीं सुनी तो
वह भी आँख दिखाता है
अंतर्मन के बिखरावों को
सहेजता जैसे-तैसे
गलियाँ सड़कों तक जा पहुँचीं
अब कठोरता सीख रहीं
चिड़ियाँ भी रूठी-रूठी सी
उड़ती केवल दीख रहीं
पता नहीं कब खर्च हो गये
गुल्लक के सारे पैसे
जितना हो पाता, उतना तो
जतन किये ही जाता हूँ
कोनों में बैठे अतीत से
समय खोज बतियाता हूँ
ताल जेठ में भी ज्यों जीवित
आस अभी बाकी वैसे
रोकूँ तो रोकूँ कैसे!
सपनों का ये जिद्दी जमघट
खुद में ही उलझाता है
यौवन की यदि नहीं सुनी तो
वह भी आँख दिखाता है
अंतर्मन के बिखरावों को
सहेजता जैसे-तैसे
गलियाँ सड़कों तक जा पहुँचीं
अब कठोरता सीख रहीं
चिड़ियाँ भी रूठी-रूठी सी
उड़ती केवल दीख रहीं
पता नहीं कब खर्च हो गये
गुल्लक के सारे पैसे
जितना हो पाता, उतना तो
जतन किये ही जाता हूँ
कोनों में बैठे अतीत से
समय खोज बतियाता हूँ
ताल जेठ में भी ज्यों जीवित
आस अभी बाकी वैसे
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें