सोमवार, 23 जुलाई 2018

समय पर समझ (लघुकथा)

सागर बार-बार टीवी के सामने बिठा लेता कि देख न नयी मूवी आ रही लेकिन दीपिका का मन लगे तब न! उसका ध्यान तो रसोई की ओर लगा था।

"कामवाली तब से किचन में अकेली...जाने क्या-क्या कर रही होगी! कैसे पका रही होगी! बर्तन धोये होंगे कि नहीं ठीक से! हाथों में साबुन लगाया होगा कि नहीं!" यही सब उधेड़बुन। आखिर रहा नहीं गया।

"आप देखो न सिनेमा, मैं जरा मीना को देख के आती हूँ, पता नहीं क्या-क्या खुराफात कर रही होगी"

"अरे तुम भी न बिना मतलब के कामों में..." सागर के टोकते-टोकते वह कमरे से निकल चुकी थी।

"अरे हमारे बेटे को भी वही खाना है यार, कुछ भी कैसे खिला दें?"

भुनभुनाती हुई सीधे किचन में जा पहुँची। नौकरानी चिढ़ गयी कि अब फिर से ये धो, वो धो शुरू होगा और हुआ भी वही। दीपिका के बेटे ने जब से थोड़ा-थोड़ा खाना शुरू किया था दूध के अलावा, वह खाने की गुणवत्ता को लेकर बहुत सजग रहने लगी थी। नौकरानी को समझा-बुझा कर निकली ही थी कि पीछे से आवाज आयी,

"सागर, ये मम्मी जी किचन में नौकरानी के पीछे क्यों पड़ी रहती तुम्हारे लिए नाश्ता बनते टाइम?"

मुड़ के देखा तो सास उसको चिढ़ाते हुए उसका ही कहा दुहरा रही थी। मुस्कुरा के अपने कमरे की ओर भागती दीपिका की झेंप बस इतने ही शब्दों का रूप ले सकी।

"हम्म, सही कहा मम्मी जी, सब समय पर ही समझ आता है"

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