सोमवार, 23 जुलाई 2018

घमंड पर चोट (लघुकथा)

हर बार की तरह इसबार भी अपने ससुराली धन के अहंकार में भरी रेखा मायके में हर चीज पर मनचाहा कमेंट करती फिर रही थी। नजरें सोपकेस पर गयीं। महँगा वाला साबुन रखा था अमुक ब्रांड का। व्यंग्यपूर्ण मुस्कान चेहरे पर नाचने लगी।

"भाभी, इसलिए मैंने पिछलीबार अपनावाला अमुक ब्रांड साबुन यहीं छोड़ दिया था कि आपलोगों को भी पसंद आएगा तो खरीदेंगे, देखा पसंद आ ही गया और लाने भी लगे"

अखबार में मगन भाभी विमला ने न में सिर हिलाया,

"अरे नहीं जी, आपका छोड़ा हुआ ही साबुन वो, यहाँ किसी ने लगाया नहीं, अमुक ब्रांड साबुन तो हम कब के इस्तेमाल कर के परख चुके, किसी को पसंद नहीं आता"

फूटे गुब्बारे जैसा मुँह लिए रेखा कमरे में चली गयी। विमला पास खड़े हँस रहे बेटे से बोली।

"देखा अगर तू उसी दिन ये साबुन फेंक देता तो आज यह समझती कि हमने उपयोग कर लिया उसका छोड़ा हुआ साबुन तरस-तरस के, किसी के घमंड पर गुस्से से नहीं, अक्ल से चोट की जाती है"

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