सोमवार, 16 जुलाई 2018

फागुन (लघुकथा)

लगातार घिस-घिस की आवाजें सुनते-सुनते जेठ ने जब उबकर चेहरा चादर से बाहर निकाला तो देखा कि फागुन हाथ में पोंछा लिए आसमान रगड़ रहा है।

"अरे ओ, क्या करने लगा वहाँ? जा बहारें खड़ी होंगी कब से इंतजार में, लेकर आ उनको" जेठ झल्लाया

"जाता हूँ चाचा जाता हूँ, अबकी पूस कुछ ज्यादा नादानी कर गया। देखो क्या हाल हो गया, धुँधलका साफ होने का नाम नहीं ले रहा, बहारों को कैसे बुला लूँ इसमें?? ओहहह" फागुन ने अपने माथे का पसीना पोंछते हुए कहा

"अब क्या करुँ मैं? कितना समझाया सबको लेकिन कौन सुननेवाला? कोई काई जमा जाता है तो कोई कुहासा, उफफफ"

"हाँ-हाँ दे लो भाषण, जब अपनी बारी आएगी तो फिर पिछलीबार की तरह सबकुछ झुलसा के चले आना"

जेठ ने झेंपते हुए अपना चेहरा वापस चादर में छिपा लिया।

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