रविवार, 22 जुलाई 2018

अन्याय (लघुकथा)

"अन्याय को नहीं सहेंगे-नहीं सहेंगे, हम हक अपना, ले के रहेंगे-ले के रहेंगे"

सड़क जाम किए बैठा संगठन पूरे जोश में था। पास ही खड़ी पुलिस जीप में सिपाही तो थे लेकिन उनको आदेश था कि जबतक कोई अप्रिय घटना न हो, प्रदर्शनकारियों पर किसी तरह का एक्शन नहीं लेना है। तभी मैले-कुचैले कपड़े पहने एक अधेड़ उम्र का आदमी अजीब ढंग से चलता हुआ बगल की चाय दुकान में आया और बेंचपर बैठ गया। देख के कोई नशेड़ी सा लगता था जो पीकर कहीं पड़ा रहता हो। जोर-जोर से लगते नारे उसके कानों में भी जाने लगे। अचानक ऐसा लगा मानो उसे करंट लग गया हो। गालियाँ बकता हुआ झटके से उठा और बैठे प्रदर्शनकारियों पर ईंटों की बौछार कर दी। शांति से हो रही नारेबाजी भगदड़ में बदल गयी। कितनों के सर फट गये। पुलिस तुरंत हरकत में आई और पत्थरमार को दबोच लिया गया। जब उसे घसीटते हुए ले जाने लगे तो चायवाला गिड़गिड़ाने लगा,

"साहब छोड़ दो, बेचारे की दिमागी हालत ठीक नहीं, पिछले बरस इसका पंद्रह साल का बेटा बहुत बीमार था, हस्पताल ले जाते समय ऐसे ही एक हल्ले-गुल्ले के कारण लगे जाम में फँसकर समयपर इलाज न मिलने से मर गया, तब से ये ऐसा ही है और कहीं भी नारेबाजी होती देख हिंसक हो जाता है, माफ कर दो"

दरोगा राम सिंह अंदर तक दहल उठे, सिपाहियों को आँख ही आँख में कुछ कहा और उन्होंने उस आदमी को छोड़ दिया। बौराई भीड़ को काबू करने में लगे राम सिंह का दिल अब भी रो रहा था। पागल की कहानी सुनकर या शायद उनको दस साल पहले अपनी गर्भवती बहन के साथ हुआ ऐसा ही अन्याय याद आ गया था...

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