सोमवार, 23 जुलाई 2018

अमिट पीड़ा (लघुकथा)

टीवीपर मालती देवी को देख साधना का मन बुरी तरह से झल्ला उठा और वह तुरंत कमरे से निकल गयी। नहीं याद करना चाहती वह बीता हुआ कुछ भी। बरामदे से सड़कपर चलती गाड़ियों को एकटक से ताकती उसकी आँखों के सामने पुनः पंद्रह साल पुराने दृश्य कौंधने लगे। कॉलेज का मस्तीवाला समय, सहपाठी लड़कों के साथ बाइकपर टूर के लिए जाना, नाचना और सबके अंत में...अपने ग्रुप के पाँच पुरुष मित्रों के संग मनाई गयी वही फेयरवेल पार्टी...यौवनमद में चूर होकर ली गयी शराब की घूँटे तथा उसके बाद...सोचते ही दिल जोर-जोर से धड़कने लगा, आँसू फिर छलक आये। 

तब इसी मालती ने खूब अपने एनजीओ का बैनर सजा-सजाकर मीडिया में ये मुद्दा उठाया था। त्वरित कारवाई करते हुए उन पाँचों लड़कों को गिरफ्तार करनेवाले सबइंस्पेक्टर को सालभर में तरक्की मिल गयी, अनजान सी मालती का नाम घर-घर में चर्चित हो गया किन्तु उसने क्या पाया लुटे, हराये जाने के अहसासों के सिवा? किसी कीमती चीज का उस व्यक्ति के द्वारा छीना जाना जिसे आप कभी वह देना नहीं चाहते थे, आत्मापर एक स्थायी घाव के सिवा कुछ है? दोषियों को मिली सात साल की सजा क्या चौथाईभर भी भरपाई कर सकी इसकी? अश्रुधारा अब अविरल हो चुकी थी।

तभी कंधेपर चिरपरिचित आत्मिक गर्माहट की अनुभूति हुई जिसने उसके टुकड़ों में बिखरे अस्तित्व को काफी हदतक वापस बटोर के जोड़ दिया था, उसका पति नरेश। उससे लिपट के रोती साधना के कानों में अपने माँ-बाप के कहे शब्द गूँज रहे थे जिन्हें समझने में उसने बहुत देर कर दी

"बेटी, कभी कोई वैसा काम मत कर जिससे अपनी सुरक्षा खतरे में पड़ जाए क्योंकि कुछ दुर्घटनाएँ अमिट पीड़ा दे जाती हैं"

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