अब साढ़े सात बजने को थे। वह सुबह पाँच बजे से ही कागज के तिरंगों का गठ्ठर लिए यहाँ से वहाँ घूमता रहा लेकिन लागत तक नहीं निकली थी। डेढ़ बासी रोटियों का असर भी खत्म होने लगा था। थक के किसी स्कूल के गेट की सीढियोंपर बैठ गया। झंडोत्तोलन का समय निकट था। पन्द्रह अगस्त की रौनक देखते बनती थी। चारों ओर देशभक्ति गाने, तिरंगी झालरें, सफेद यूनिफॉर्म में सजे-धजे स्कूल जाते बच्चे-बच्चियाँ, नारे-भाषण किन्तु उसका मन इनमें रमे भी तो कैसे? गरीबी घर को लीलने के लिए आतुर हो चुकी थी। पापा की पानदुकान और माँ का चौका-बर्तन इस महँगाई के आगे कमजोर पड़ते दिखने लगे। मैट्रिक के बाद पढ़ाई भी रुक गयी। ट्यूशन पढ़ाना चाहा तो झुग्गी में कोई अपने बच्चों को ट्यूशन पढ़वाता नहीं था और शहर के लोग एक मरियल से दिखनेवाले गरीब अठारह-उन्नीस साल के लड़के को ट्यूटर रखने से कतराते थे कि कहीं चोर-उचक्का न हो। ठीक कहते हैं सब कि किसी दुकान में काम पकड़ ले। हजार-बारह सौ मिलने ही लगेंगे, कुछ तो सहयोग होगा घर में। ख्यालों की आँधी फिर से चलने लगी कि पड़ोसी महतो चाचा की आवाज सुनाई दी
"ए अर्जुन, देख तो ये तेरा ही कागज है न?"
मेरा कैसा कागज? अचंभे से लिफाफा लेकर देखा। भेजनेवाला, राज्य कर्मचारी चयन आयोग! अचानक से छः माह पहले दी हुई ग्रुप डी की परीक्षा याद आयी। एकलौती यही परीक्षा तो दी थी नौकरी की जैसे-तैसे। बाद में हताशा ने इसका ध्यान ही बिसरा दिया। दिल की धड़कनें बढ़ गयीं। जल्दी से खोलकर देखा तो ज्वाइनिंग लेटर था। हफ्तेभर में ज्वाइन करने जाना था। आँखें छलकने लगीं,
"ये कहाँ मिला आपको चाचा?"
"अरे डाकिया गलती से मेरे घर डाल गया था लगता है, अभी सुबह झाड़ू लगाते समय तेरी चाची ने देखा कोने में पड़ा तो दिया मुझे। तेरे घर में पूछा तो भाभी ने बताया कि बाजार तरफ निकला है झंडा बेचने के लिए तो खोजते इधर आ गया कि भाई सरकारी कागज है जल्दी दे दूँ, क्या है इसमें?"
"नौकरी हो गयी चाचा" कहते-कहते भावनाओं का बाँध आखिर टूट ही गया
"अबे पागल तो रोता क्यों है? चल घर सबको खबर दे" महतो चाचा उसे लिए उसके घर की ओर चल दिए। झंडा फहर के लहरा रहा था और अर्जुन को अपनी आजादी मिल चुकी थी।
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