सोमवार, 16 जुलाई 2018

आँच (लघुकथा)

"अरी ओ आँच, तू लपट का रूप क्यों ले रही है धीरे-धीरे? तुझे तो चूल्हे के लिए बुलाया गया था"

"चुपकर बे खाली हांडे। और ज्यादा गुस्सा मत दिला मुझे। तीन शाम से देख रही हूँ। बुला लेते हैं सब लेकिन कोई काम नहीं देते। बस तू अपनी इस खाली हालत में मुँह लटकाए बैठा मिलता है"

"लेकिन......."

"लेकिन-वेकिन कुछ नहीं, ऐसे ही चलता रहा न तो मैं ज्यादा दिन बर्दाश्त नहीं करूँगी। पहले इस घर की ईमानदारी को जलाके मार डालूँगी फिर आसपास के इलाकोंपर कहर टूटेगा मेरा। सबकुछ खाक करती जाऊँगी,
करती जाऊँगी..........तबतक नहीं रुकुँगी जबतक.........."

"जबतक..........?"

"जबतक तू भरकर छलकता हुआ मुझसे तपने नहीं आएगा"

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें