बकरापुर में फिर आज सुबह-सुबह चीख-पुकार मच गई। शाका शेर बीती रात गाँव के एक और मेमने को उठा ले गया था। उसके बेचारे माँ-बाप का तो रो-रोकर बुरा हाल था। सभी उनको ढाढस बँधाने की कोशिश में थे लेकिन शाका का डर सबको चिंतित किए था, जाने कब किसकी बारी आ जाए!
बकरापुर नदी के किनारे बसा एक हरा-भरा, सुंदर गाँव था जिसमें ढेर सारे बकरे-बकरियाँ आपस में मिल-जुलकर रहते थे। कुछ संख्या में खरगोश, हिरण जैसे अन्य जानवर और पक्षी यथा तोते, मैना तथा गौरैया आदि भी थे लेकिन इधर कुछ महीनों से मानों बकरापुर की खुशहाली को किसी की नजर लग गई थी। पास के घने जंगल से एक दुष्ट शेर शाका आए दिन वहाँ घुसकर किसी न किसी को अपना शिकार बना लेता। सारे ही उससे बहुत परेशान हो चुके थे लेकिन कहाँ ये बेचारे छोटे-छोटे बकरे और कहाँ वह भारी-भरकम बब्बर शेर। सो किसी का कुछ वश नहीं चल पाता।
आज फिर गाँव में पंचायत बैठी। रात की घटना मुख्य विषय था। विवशता मुखिया दीनू बकरे के चेहरे से साफ झलक रही थी। वे बोले,
"पानी अब सिर से ऊपर जा चुका है, हम अपने बच्चों को इस तरह किसी का खाना नहीं बनने दे सकते"
"लेकिन हम करें भी तो क्या मुखिया जी? हमारे पास तो न ताकत है और न ही बड़े-बड़े दाँत, नाखून जिससे हम
शाका से लड़ें" उदास स्वर में हरिया खरगोश बोला। कुछ दिनों पहले उसके भी पोते को शाका खा गया था।
"एक ही उपाय है, हमसब ये गाँव छोड़कर कहीं और चले जाएँगे" रुनझुन तोता कह उठा। अपना प्यारा गाँव छोड़ने की बात किसी को अच्छी तो नहीं लगी लेकिन कोई उपाय नहीं होने की वजह से सबमें एक मौन सहमति बनने लगी। कल रात शिकार बने मेमने के माँ-बाप बीच में बैठे अपने आँसू पोंछ रहे थे।
दीनू के लाचारी भरे स्वर ने खामोशी तोड़ी,
"तो ठीक है, हमसब परसों तक ये जगह छोड़ देंगे। आपलोग इन दो दिनों में अपना-अपना सारा सामान बाँध लें"
"नहीं मुखिया काका" तभी एक मजबूत आवाज गूँजी। सबने आवाज की ओर देखा तो झबरी बकरी का बेटा चुटपुट खड़ा था। वह आज ही शहर से अपनी पढ़ाई पूरी कर के लौटा था। सबकी मदद करने के स्वभाव के कारण सभी उसे बहुत पसंद करते थे। बाहर पढ़ने जाने से पहले वह अक्सर तरह-तरह के नुक्कड़ नाटकों का आयोजन कर सबका मनोरंजन भी किया करता था।
"मुखिया काका, हमसब अपनी ये जन्मभूमि छोड़कर कहीं नहीं जाएँगे"
"लेकिन बेटे, यह समस्या...." दीनू की बात अधूरी ही रह गई,
"मैंने सब सुन लिया है काका, आपलोग मेरा साथ दें, मैं उस दुष्ट का साया इस गाँव से हमेशा-हमेशा के लिए हटा दूँगा" चुटपुट के चेहरेपर आत्मविश्वास था।
अगले दिन जंगल में शाका नदी किनारे आराम कर रहा था कि उसे कुछ अजीब सी आहट सुनाई दी। वह उस तरफ गया तो देखा कि कुछ बकरे अटपटे तरह से नृत्य कर रहे थे। वह उन्हें इस घने जंगल में देखकर चौंक पड़ा।
"ये मूर्ख यहाँ क्या करने आए? और ऐसे हाथ-पैर हिलाने का मतलब? खैर छोड़ो मुझे क्या? मेरा तो आज का भोजन खुद चलके मेरे पास आ गया। अब रात को गाँव जा के किसी को दबोचने की जरूरत नहीं पड़ेगी हाहाहा" ये सोचकर उसकी आँखों में चमक आ गयी और वह दबे पाँव उनकी ओर बढ़ा कि अचानक ये क्या? बकरों के उस अनोखे नृत्य के बीच ऊपर से एक बिलकुल नये तरह का जीव धम्म से कूदा। वह दिखने में कुछ-कुछ बकरे की ही तरह था लेकिन उसका रंग हरा और सींग सुनहले थे। पैरों में इतने लंबे-लंबे बाल मानों झाड़ियाँ उग आईं हों। सभी उसको देखते ही शांत हो गये और नमस्कार की मुद्रा में सिर झुका लिया। शाका भी पेड़ की ओट में छिप सब देख रहा था। उसको कुछ समझ न आ रहा था कि ये सब हो क्या रहा है? सो उसको अब थोड़ा-थोड़ा भय सा होने लगा था।
ऊपर से उतरे विचित्र प्राणी को नमस्कार कर उन बकरों में से एक ने गाते हुए पूछा,
"बकरे, बकरे, बकरे
तुम किस वन में ठहरे?"
हरे बकरे ने भारी स्वर में राग सुनाया,
"रहता हूँ तिलिस्मी वन, खाता हूँ मकोय
सात सियार रोज नाश्ता होयँ
बाघ को मार-मार ऊबा भारी
सिंह को खोजते पकती दाढ़ी"
इतना सुनते ही शाका शेर की हालत खराब हो गयी। ये प्राणी सात सियारों को रोज नाश्ते में खा जाता है, बाघ जैसे मजबूत प्राणी को मार-मार के ऊब चुका है! और अब सिंह को ढूँढ रहा! हे प्रभु! इस जंगल में तो मैं ही अकेला शेर हूँ अगर इसने मुझे देख लिया तो पक्का मार डालेगा, न बाबा, मुझे यहाँ अब एक पल भी नहीं रुकना, यही सोचते हुए उसने आव देखा न ताव, सीधे सरपट दौड़ लगा दी जंगल के बाहरवाली पहाड़ियों की तरफ।
इधर उसको भागता देख विचित्र प्राणी का वेश बनाए चुटपुट और बाकी नर्तक साथी बकरे मुँह दबा के हँस रहे थे (समाप्त)
लेखिका - कुमुद भूषण
*यह कहानी मेरी मम्मी की लिखी हुई है - कुमार गौरव अजीतेन्दु
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