सोमवार, 16 जुलाई 2018

चाँद चलने लगा (गीतिका)

चार दाने लिए लौट आने लगी।
भोर फिर घोंसलों में समाने लगी।

चाँद चलने लगा साँझ को थामकर,
चाँदनी देह से झरझराने लगी।

कुछ अलग सी सुवासें लिए है पवन,
प्रीत लगता उसे भी सताने लगी।

कामना जो उजालों तले मौन थी,
पा अँधेरा पुनः सिर उठाने लगी।

गुप्त तो बात कुछ, भान होता हमें,
पत्ती-पत्ती तभी फुसफुसाने लगी।

उम्र लेटी हुई है बिछाकर दरी,
छत उसे भी सितारे दिखाने लगी।

बंद होती किवाड़ें कहें रुक तनिक,
है भरी ही उमस, हड़बड़ाने लगी।

आज चौपाल भी हो रही कुछ गरम,
राजनीतिक अगन गुमगुमाने लगी।

हंस जोड़े बना विचरते मगन से,
धार श्रृंगार की वेग पाने लगी।

सुंदरी और सुरा में अमीरी हँसे,
झोंपड़ी में गरीबी रुलाने लगी।

नेहमय छौंक गुंजित हुई सब तरफ,
लक्ष्मी घर की खाना बनाने लगी।

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