भरी दुपहरी में टीकू एक्का दरारों से भरे एक छप्पर के नीचे बैठा कोई संथाली लोकगीत गुनगुना रहा था। ईंटभठ्ठे पर के बाकी साथी अपना-अपना खाने का डब्बा खोले मगन थे। पिछले महीने लड़की बीमार पड़ गयी। बहुत खर्चा आ गया, पूरे पाँच हजार। कब से जोड़-जोड़ के कुछ जमा किया था, सब एक झटके में निकालना पड़ा और तो और ससुर जी का दिलाया वह चाइनीज मोबाइल भी बिक गया वर्ना अभी उसीपर गाने सुन रहा होता। कैसी भोंपू जैसी जोरदार आवाज करता था, पूरे भठ्ठे में गूँजती थी।
ओह्ह, तभी मन काँप उठा। आ गयी ससुरी, अब जलाएगी पेट को घंटे-दो घंटे। भूख की पुनः अनुभूति ने टीकू को चिंतित कर दिया। घर में आज कुछ था ही नहीं, न तो रनिया कहाँ माननेवाली थी! डिब्बा बाँध ही देती। उसने हड़बड़ा के बीड़ी सुलगाई और होठों में दबा लिया। दिमाग ही सुन्न हो जाए तो फिर क्या भूख, क्या प्यास? तबतक खाने का समय बीत चुका था। भठ्ठा मैनेजर ने हड़काया, अरे ए, टीकू, इधर सुन जल्दी, भठ्ठी का टाइम हो गया। जल्दी से उठ के दौड़ा। कहीं मैनेजर खिसिया गया तो आज भी शाम को मजदूरी देने में बहाने बनाके टाल देगा।
ईंटें पकने लगीं। भठ्ठी से निकलते धुएँ को देख टीकू सोच रहा था कि भठ्ठी उससे ज्यादा नसीबवाली है, कभी खाली पेट धुआँ नहीं छोड़ती...
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