रविवार, 26 अगस्त 2018

जोर (लघुकथा)

नरेश बाबू खाना खा के अपनी दुकान पर लौटे ही थे कि ठीक सामने किसी का ट्रक खड़ा देख झुँझला उठे,

"अरे मनोरमा, ये ट्रक कौन लगा गया?"

"पता नहीं पापा, कोई सत्रह-अट्ठारह साल का लड़का था ड्राइवर, मैं पहचानती नहीं"

"ओह्हो..."

चिढ़े मन से पड़ोसी दुकानदार से ट्रकवाले के बारे में जानकारी जुटाने का प्रयास कर ही रहे थे कि वह ड्राइवर दिख गया। तुरंत उसके पास पहुँचे,

"अरे बेटा, दुकान के आगे गाड़ी नहीं लगाते..."

झल्लाहट को यथाशक्ति दबाते हुए बात कर रहे थे क्योंकि उस इलाके के अधिकतर ट्रक मालिक कखग जैसी मजबूत संख्याबल वाली दबंग जाति के थे। लड़का भी लापरवाही से जवाब दे रहा था। तभी कोई परिचित धीरे से बोला,

"ये ट्रक सोहना का, वो ससुरा बहुत जिद्दी है, कम-कम उम्र के लड़कों को ड्राइवर बना लेता है और इसी तरह की हरकतें करते चलते वे"

सोहना चछज जाति से आता था और उस जाति के आठ-दस परिवार ही थे वहाँ। नरेश बाबू की आवाज में अचानक जोर आ गया,

"हटाता है कि नहीं रे साला? बुलाएँ पुलिस को?"

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें