रविवार, 26 अगस्त 2018

निरुत्तर (लघुकथा)

रात साढ़े बारह बजे भी वह जाग के परीक्षा की तैयारी में जुटी थी कि दस्तक हुई। सुनते ही उसके पिता ने दौड़ के दरवाजा खोला

"अरे सब ठीक है न? सबका मोबाइल बंद क्यों?" घबरायी आवाज में आगंतुक से पूछा

"कुछ भी ठीक नहीं है, पुलिस ने अचानक छापा मार दिया, कौन शहीद हुआ, कितने गिरफ्तार कुछ खबर नहीं"

"ओह्ह, तो अब?"

"ये कुछ रुपये रख, पाँच लाख के लगभग हैं, जितने हो सकें हथियार खरीद के रख लेना, निकलता हूँ मैं"

"लाल सलाम कॉमरेड"

"लाल सलाम" 

कह के आगंतुक जितनी तेजी से आया था, उसी से वापस भी लौट गया। पिता दरवाजा बंदकर वहीं बैठ के रुपये गिनने लगा। आज आखिर वह पूछ ही बैठी

"पापा, आपके दोस्त कभी कोई रोजगार करने के लिए आपको पैसे क्यों नहीं दे जाते?"

पिता निरुत्तर हो चुका था...

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